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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ४२५ कुन्द प्रभु के चरणों को विनय करनेवाला सूचित किया है। इससे यह भूलसंघ के विद्वान ज्ञात होते हैं। मेरी राय में यह पिण्ड के कर्ता हो सकते हैं। विमलकोति प्रस्तुत विमलकीर्ति वागसंघ के रामकीर्ति के शिष्य थे । यह रामकीति वही है जो जयकीर्ति के शिष्य थे। और जिनकी लिखी हुई प्रशस्ति चित्तौड़ में संवत् १२०७ में उत्कीर्ण की हुई उपलब्ध है । विमलकीर्ति की दो रचनाएँ हैं। 'सोखवइ विहाण कहा' मोर सुगन्धदसमो कहा। दोनों कथाओं में व्रत का महत्त्व और उसके विधान का कथन किया गया है। जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला के कर्ता यश कीर्ति भी विमलकांति के शिष्य थे। इनका समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी है । मेघचन्द्र यह मूल संघ, देशीगण, कुन्दकुन्दान्यय, पुस्तक गच्छ और इंगलेश्वर वलि के विद्वान थे। इनके गुरु का नाम भानुकीर्ति था और प्रगुरु का बाहुबलि था । यह चन्द्रनाथ पार्श्वनाथ वसदि का पुरोहित था । अनन्तपुर जिले के ताड़पत्रीय शिलालेख से प्रकट है कि उस स्थान पर एक जैन मन्दिर और जैन गुरुश्रों की प्रभावशाली परम्परा थी । उन्हें उस प्रदेश के सामान्तों से संरक्षण प्राप्त था। यह शिलालेख सन् १९९८ ई० का है, जिसमें उदयादित्य सामन्त के द्वारा मेघच को भूमिदान देने का उल्लेख है। ( Jainism in South India P. 22 ) इससे प्रस्तुतमेन्द्र विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं । इनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है । कुमुदेन्दु मूल संघ- नन्दिसंघ बलात्कार गण के विद्वान थे। इन कुमुदेन्दु योगी के शिष्य माघनन्दि सैद्धान्तिक थे। पर वादिगिरिवन और सरस कदितिलक इनके उपनाम थे। इनकी एक मात्र कृति 'कुमुवेन्दु-रामायण' नाम का ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह पद्मनन्दि व्रती का पुत्र था, और इसकी माता का नाम कामाबिका था । पद्मनन्द व्रती साहित्य कुमुदवन चन्द्रचतुर चतुविधि पाण्डित्य कला शतदल विकसन दिनमणिवादि घराघर कुलिश- कवि मुखमणिमुकुर, उपाधियाँ थी । इनके पितृव्य (काका) श्री महंनन्दि प्रति बतलाये गये है । उन्हें परमागम नाटक तर्क व्याकरण निघण्टु छन्दोल कृति चरित पुराण षडङ्गस्तुति नौति स्मृतिवेदान्त भरत सुरत मन्त्रषध सहित नर तुरंग गजमणिगण परीक्षा परिणत विशेषणों के साथ उल्लेखित किया गया है। इनका समय सन् १२६० के लगभग है । ( कर्नाटक जैन कवि) गुणभद्र यह मूलसंघ देशीगण और पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के गगन दिवाकर थे। इनके शिष्य नयकीर्ति सिद्धान्त देव थे, और प्रशिष्य भानु कीर्ति व्रतीन्द्र को, जिन्हें शक सं० १०९५ के विजय संवत में होय्यसल वंश के बल्लाल नरेश ने पार्श्वनाथ और चौबीस तीर्थकरों की पूजन हेतु 'मास हल्लि' नाम का गांव दान में दिया था । श्रतएव इनका समय विक्रम संवत् १२३० है । और इनके प्रगुरु गुणभद्र का समय इनसे कम से कम २५ वर्ष पूर्व माना जाय तो उनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १३वीं का प्रारम्भिक भाग माना जा ( जैन लेख सं० भा० ११०३८५ ) सकता है । प्रभाचन्द्र प्रस्तुत प्रभाचन्द्र श्रवणबेलगोल के शक संवत् १११८ के उत्कीर्ण हुए शिलालेख नं० १३० में, और शक सं १. शर्माकति गुरुविण करेविष्णु विमलकति महियलि पडे दिए । — सुगन्ध दसमी कहा प्र०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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