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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
शिष्य परम्परा
भ० पद्मनन्दी के प्रतेक शिष्य थे उनमें चार प्रमुख थे। शुभचन्द्र उनके पट्टधर शिष्य थे । देवेन्द्र कीर्ति ने सूरत में भट्टारक गद्दी स्थापित की थी। शिवनन्दी जिनका पूर्वनाम सूरजन साहु था। पद्मनन्दी द्वारा दीक्षित होकर शिवनन्दी नाम दिया, जो बड़े तपस्वी थे। धर्मध्यान और प्रतादि में संलग्न रहते थे। बाद में उनका स्वर्ग: बास हो गया था। चतुर्थ शिष्य सकलकीर्ति थे जिन्होंने ईडर में भट्टारक गट्टी स्थापित की थी। यह अपने समय के सबसे प्रसिद्ध और प्रतिभा सम्पन्न भट्टारक थे। दिगम्बर मुद्रा में रहते थे। इन्होंने अनेक प्रतिष्ठाए, और अनेक ग्रन्थों बी रचना की है। इनकी शिष्य परम्परा भी पल्लवित रही है। भ० पद्यनन्दी द्वारा दीक्षित रत्नश्री' नाम को प्रायिका भी थी। इस तरह पद्मनन्दी ने और उनकी शिष्य परम्परा ने जंन संस्कृति को महान् सेवा की है।
भट्टारक यशःकोति यह काष्ठासंघ माथुर गच्छ और पुष्कर गण के भट्टारक गूणकीति जिनका तपश्चरण से शरीर क्षीण हो गया था, लघुभ्राता और पट्टधर थे। यह उस समय के सुयोग्य विज्ञान और प्रतिष्ठाचार्य थे। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के अच्छे बिद्वान और कवि थे। अपने समय के अच्छे प्रभावशाली भवारक थे। जैसा कि निम्न प्रशस्ति वाक्यों से प्रकट है:
"सुतास. पट्टमायरो वि प्रायमत्थ-सायरो, रिसिस गच्छणायको जयन्त सिक्ख दायको जसक्खु किसि सुदरो प्रकंपुणाय मंदिरो।"
(पास पुराण प्र०) 'सहो बंधउ जायमणि सीस सार, आय दिन गणालिय गोपा '
-हरिवंश पुराण 'भव्व-कमल-सबोह पचंगो तह पुण-तव ताप तषियंगो। णियोभासिय पक्षण प्रगो, विवि सिरि जस किसि प्रसगो।"
-सन्मति जिन च०प्र० यशः कीति प्रसंग (परिग्रह रहित) थे, और भव्यरूप कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान थे, वे यशः कीति वन्दनीय है। काष्ठासंध की पट्टावली में उनकी अच्छी प्रशंसा की गई है। उनकी गुणकीति प्रसिद्ध थी व पूण्य मूर्ति, कामदेव के विनाशक और अनेक शिष्यों से परिपूर्ण, निर्ग्रन्थ मुद्रा के धारक, जिनके चित्त में जिन चरण कमल प्रतिष्ठित थे-जिन भक्त थे और स्याद्वाद के सत्प्रेक्षक थे।
इन्होंने सं. १४८६ में विबुध श्रीघर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र और अपभ्रंश भाषा का 'सुकमाल चरित' ये दो ग्रन्थ लिखवाये थे।
भट्टारक यश: कीति ने स्वयंभू कवि के खंडित जीर्ण-शीर्ण दशा में प्राप्त हरिवंशपुराण (रिट्रणेमि चरिउ) का ग्वालियर के समीप कुमारनगर के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने के लिए उद्धार किया था। उसमें उन्होंने
१. स. १४७१ पदावली के प्रारम्भ में साल कीति को पपनदी का चतुर्य शिष्य बतलाया है । २. तहो सीसु सिद्ध गुण कित्तिणासु, तत्रता जासु पारीर खाम्।
तहो बंश्व जस मुणि सीपु जाउ, आयरिय वण. सिय दोसु-राउ ।। (हरिवंशपुराण) ३. सं. १४८६ वर्षे झापाट वदि ७ गुरु दिने गोगवल दुर्गे राजा डंगरेन्द्र सिंह देव विजय राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठा संघे माथुरान्वये पुष्कर गणे आचार्य श्री सहस्रकीति देवास्तत्पनै आचार्य गुणकीतिदेवास्तयिष्य श्री यश:कौतिदेवास्तेन निन ज्ञानवरणी कर्म क्षयार्य इदं भविष्यदत्त पंचमी कथा लिखापितम् ।।"
(नयामंदिर धर्मपुरा दिल्ली प्रति) तथा जैन ग्रन्य प्रशस्ति संग्रह भा०२ पृ. ६३ ४. तं जसफित्ति मणिहि, उरियउ, सिए वि सत्तु हरिवंसच्चरित। रिपत्र मुरु सिरि-गुणकित्ति पसाएँ किउ परिपुण्ण मण हो अगुराएँ । सरह मणेदं (१) सेठि पाए, कुमरिणयरि भाविउ सविसे सें। गोवग्गिरिहे समीवे विसालए परिणयारहै जिणबर चेमालए। सावय जगहो पुरज वक्खारिज, दिड मियत मोहु बमाणि उ । हरिवंश पुराण प्राप्ति