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________________ ४८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २‍ और कोगीरा । ये तीनों ही पत्नियाँ सती, साध्वी तथा गुणवती थीं और नित्य जिन पूजन किया करती थीं। उन्हों से कल्याणसिंह नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो बड़ा हो रूपवान दानो घोर जिन गुरु के चरणाराधन में तत्पर था । सं० १४७५ माषाद सुदि ५ को वीरमदेव के राज्य में कुशराज उसके परिवार द्वारा प्रतिष्ठित किया हुआ यंत्र नरवर के मन्दिर में मौजूद है। कुशराज ने भक्ति दश यशोधर चरित्र की रचना कवि पद्मनाभ से कराई थी। यह पौराणिक चरित्र यहा ही हचिकर प्रिय और दयारूपी अमृत का घोल बहाने वाला है। इस पर अनेक विद्वानों द्वारा प्राकृत संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दी गुजराती भाषा में ग्रन्थ रचे गए है। कवि ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया। किन्तु यह रचना सं० १४७५ के आस-पास की है। क्योंकि वीरमदेव का राज्य ० १४७६ के कुछ महीने तक रहा है। उक्त सं० १४७८ के वंशास में महीने उनके पुत्र गणपतिसिंह का राज्य हो गया था। उसी के राज्यकाल में धातु की बीबीसी मूर्ति की प्रतिष्ठा की गई थी। यतः पद्मनाभ कायस्थ का समय विक्रम की १५ वीं शताब्दी का तर्तीय चरण है। कवि धनपाल | कवि धनपाल गुजरात देश के परहणपुर ! या पालनपुर के निवासी थे। वहाँ राजा वीसल देव का राज्य था। उसी नगर के पुरवाड़ वंश जिसमें अगणित पूर्व पुरुष हो चुके हैं 'भोंबई' नाम के राज श्रेष्ठी थे। जो जिनभक्त और दयागुण से युक्त थे यह कवि धनपाल के पितामह थे। इनके पुत्र का नाम सु प्रभ' श्रेष्ठी था, जो धनपाल के पिता थे। कवि की माता का नाम 'सुहादेवी था इनके दो भाई और भी थे, जिनका नाम सन्तोष मोर हरिराज था। इनके गुरु प्रभाचन्द्र थे, जो अपने बहुत से शिष्यों के साथ देशाटन करते हुए उसी पल्हूणपुर में आये थे। धनपाल ने उन्हें प्रणाम किया और मुनि ने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रसाद से विलक्षण हो जाओगे और मस्तक पर हाथ रखकर बोले कि मैं तुम्हें मंत्र देता हूं! तुम मेरे मुख से निकले हुए अक्षरों को याद करो। माचार्य प्रभाचन्द्र के वचन सुनकर धनपाल का मन मानन्दित हुआ, धीर उसने विनय से उनके चरणों की वन्दना की, मौर मालस्य रहित होकर गुरु के बागे शास्त्राभ्यास किया, और सुकवित्व भी पा लिया। पश्चात् प्रभाचन्द्र गणी खंभात पारनगर और देवगिरि (दौलताबाद) होते हुए योगिनी पुर (दिल्ली) प्राये देहली निवासियों ने उस समय एक महोत्सव २. संवत् १४७६ वर्षे वैशाख सुदि ३ शुकवासरे गणपति देव राज्य वर्तमाने श्री मूलसंधे नंद्याग्नाये भट्टारक शुभचन्द्रदेव मंडलाचार्य पं० भगवतीमा भाव सेभावे निविम्व प्रतिष्ठा काशवितम् । मूर्ति लेख नया मन्दिर लवकर १. पालमपुर (पुर) Palanpur मात्र राज्य के पश्मारधी पारा वर्ष ० १२२० (सन् १९५१६० १२०६ सन् १२१९) तक आबू का राजा धारावर्ष था, जिसके कई लेख मिल चुके है उसके कनिष्ठ भ्राता यशोटवल के पुत्र प्रह्लादन] देव (पालनसी) ने अपने नाम पर बसाया था। यह बड़ा वीर योद्धा था, साथ में विद्वान भी था। इसी से इमे कवियों ने पालनपुर या पल्हरणपुर लिखा है। यह गुजरात देश की राजधानी थी। यहां अनेक राजाओं ने शासन किया है। आबू के शिला लेखों में परमावंश की उत्पत्ति और माहात्म्य का वर्णन है और प्रह्लादन देव की प्रशंसा का भी उल्लेख है। समय कुमारपाल यादि तीयों की यात्रा को गया, तब प्रान देव भी साथ था। - ( पुरातन प्रबंध ० पृ० ४१) प्रह्लादन देव की प्रशंसा प्रसिद्ध कवि सोमेश्वर ने कीर्ति कौमुदी में और तेजपाल मंत्री द्वारा बनवाए हुए सूणमसह की प्रशस्ति में की है। यह प्रशस्ति वि० सं० १२६७ में आबू पर देलवाड़ा गांव के नेमिनाथ मन्दिर में अगाई थी। मेवाड़ के गुहिल वंशी राजा सामन्त सिंह और गुजरात के सोलंकी राजा बजयपाल को मड़ाई में, जिसमें वह घायल हो गया था प्रह्लादन ने वही वीरता से लड़ कर गुजरात की रक्षा को थी। प्रस्तुत पालनपुर में दिगम्बर- वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय के लोग रहते थे धनपाल के पितामह तो वहां के राज्य श्रेष्ठी । श्वेताम्बर समाज का तो वह मुख्य केन्द्र हो या ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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