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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ महावीर के जीवन काल में ही मुक्ति को प्राप्त हआ। वेताम्बर परम्परानुसार आर्य व्यक्त कोल्लाग सन्निवेश के भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम बारुणी और पिता का नाम धनमित्र था। इनके मन में यह सन्देह था कि 'ब्रह्म के अतिरिक्त सारा संसार मिथ्या है। भगवान महावीर के समवसरण में उनकी दिव्य वाणी से समाधान पाकर अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ पचास वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। बारह वर्ष तक छमस्थ अवस्था में आत्म-साधना कर केवलज्ञान प्राप्त किया। १५ वर्ष तक केवली रहकर महाबीर के जीवन काल में अस्सी वर्ष की अवस्था में मुक्ति पथ के पथिक बनेकर्म बन्धन से मुक्त हुए। सुधर्मस्वामी-(पंचम गणधर) सधर्म स्वामी मगधदेशस्थ संवाहन नगर के राजा सूप्रतिष्ठ और रानी रुक्मणि का पुत्र था। वह कशाग्र बद्धि विद्याओं के परिज्ञान में ज्येष्ठ, समस्त शास्त्रों का ज्ञाता और कलाओं का धारक था और सज्जनों के मन को आनन्द देने वाला एवं शत्रु पक्ष के राजकुमारों को भय उत्पन्न करने वाला था। एक दिन राजा सुप्रतिष्ठ सपरिवार भव-समुद्र-संतारक भगवान महावीर के समवसरण में गया, और उनकी दिव्य ध्वनि सुनकर देहभोगों से विरक्त हो दिगम्बर मुनि हो गया और भगवान का चतुर्थ गणधर हआ। कुमार ने जब देखा कि पिता ने राज्य विभूति का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण कर लो, तव सूधर्म ने भी अपने जनक की राज्य सम्पदा का परित्याग कर शाश्वत सुख को साधक दीक्षा अंगीकार की और वह महावीर का पंचम गणधर बना और तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना में तत्पर हुआ। एक दिन वह मूनि संघ के साथ विहार करता हुआ राजगृह के एक उद्यान में पहुँचा। यहाँ जम्बुस्वामी ने उन्हें देख कर नमस्कार किया और फिर उन्हीं की ओर देखने लगा। उसके मन में उनके प्रति अनुराग हुआ । जम्बू कुमार ने सुधर्म स्वामी से उसका कारण पूछा, तब उन्होंने बतलाया कि 'मैं वही भवदत्त का जीव हूँ, जो राजा बज्रदन्त का सागरचन्द्र नाम का पूत्र था, और मूनि होकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ था और तुम भवदेव के जीव हो, जो महापद्म राजा के शिवकुमार नाम के पुत्र थे और पिता के मोह से दीक्षा न लेकर घर में ही पाणिपात्र में प्राशुक आहार लिया करते थे। वहां से जलकान्त विमान में विद्युन्माली नामक देव हुआ, जो चार देवियों से युक्त था। अब वहाँ से अर्हदास गिक का पूत्र हमा है। यही परस्पर के स्नेह का कारण है। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने एक मुहर्त में द्वादशाँग का अवधारण कर बारह अंग रूप ग्रन्थों की रचना की और अपने गुणों के समान सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया। सूधर्म स्वामी का अपर नाम लोहाचार्य भी था। धवला टीका में सुधर्म के स्थान पर लोहाचार्य का उल्लेख किया गया है। .-.-.-.--.-..- - ..- - - .सजण मण नयगाणंदयउ, लाइय पडिवक्ख कुमार डरु | एक्काह दिणे सुप्पइट्ठ निवह, सकलत्तु सनंदणु सुद्धमइ । गउ वंदण भलिए भवतरण, सिरिबोर जिणंद समोसरण । सिंगमुणे वि परमेट्ठिहि दिवझुरिग, पवज्ज लेविहुउ परम मुरिख । गणहर चउत्थु नद-तवियतण, सिद्धबहु निमेसिय विमलमणु ।। -जंडू सामिचरिउ पृ० १५०-१५१ १. प्राचार्य रविषेण ने पद्मचरित के ४१३ पद्य में "मुधर्म धारिणी भवम् द्वारा उन्हें पारिणी का पुत्र प्रकट किया है। २. तेण गोदपेण दुवि हवि सुदरणारा लोहग्जस्स संचारिदं । -धवला०पू०१पृ०६५
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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