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________________ २७ भगवान महावीर के ग्यारह गणधर मुनि नन्दि ने भी जम्बूदीपपण्णत्ती में सुधमं का नाम स्पष्ट रूप से लोहाचार्य बतलाया है, जैसा कि उसकी निम्न गाथा से स्पष्ट है: तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण । गणधर सुधम्मणा खलु जम्बूणामस्स णिद्दिट्ठो ॥ (जबू० प० १ १० ) इससे सुधर्म का नाम लोहाचार्य निश्चित है । जब ईस्वी पूर्व ५१५ में इन्द्रभूति गौतम का निर्वाण हुआ, उसी दिन सुधर्म स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। सुधर्म स्वामी ने ३० वर्ष गणधर अवस्था में रहकर पते श्रात्मा का विकास किया और संघ संचालन किया, तथा जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान किया। सुभ्रमं स्वामी ने ३० वर्ष के मुनि जीवन में जो कार्य किया है, सहस्रों को जैनधर्म में दीक्षित किया, उसका यद्यपि कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। किन्तु उनके मुनि जीवन की एक घटना का उल्लेख निम्न प्रकार उपलब्ध होता है। एक समय सुधर्माचार्य ससंघ विहार करते हुए उड़ देश के धर्मपुर नगर में आये और उपवन में ठहरे। वहाँ के राजा का नाम 'यम' था। उसकी अनेक रानियाँ थीं। उनमें धनवती नाम की रानी से गर्दभ नाम का पुत्र और कोणिका नाम की पुत्री उत्पन्न हुई थी । अन्य रानियों से पांच सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे। ये पाँच सौ पुत्र परस्पर प्रेमी, धर्मात्मा और संसार से उदासीन रहते थे। राजमंत्री का नाम दीर्घ था, जो बहुत बुद्धिमान और राजनीतिज्ञ था । सुधर्माचार्य का श्रागमन जानकर, तथा नगर निवासियों को पूजा की सामग्री लेकर उनकी पूजा-वन्दना को सुनि-निन्दा जाते देखकर राजा भी अपने पाण्डित्य के अभिमान में मुनियों की निन्दा करते हुए उनके गया। और ज्ञान के अभिमान से उसके ऐसे तीव्र कर्म का उदय आया कि उसकी सब बुद्धि नष्ट हो गई । उसे अपनी यह दशा देखकर बड़ा आश्चर्य और खेद हुआ । उसने उनकी तीन प्रदक्षिणा दीं और नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश पुना । उससे उसे बहुत कुछ शान्ति मिली। उसने अपने पांच सौ पुत्रों के साथ गर्दभ को राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली और तपश्चरण द्वारा श्रात्म-साधना करने लगा। उनके पुत्र भी आत्म-साधना में संलग्न होकर कठोर तप का आचरण करने लगे । 1 इस तरह सुधर्माचार्य ने सहस्रों को दीक्षा दी, उन्हें सत्मार्ग में लगाया और महावीर वासन का प्रचार किया अन्त में सुधर्मस्वामी ने अपना सब संघभार जम्बूस्वामी को सोंप दिया और घातिकर्मों का विनाश कर केवली (पूर्णज्ञानी) बनें। उन्होंने बारह वर्ष पर्यन्त विविध देशों में विहार कर जनता का कल्याण किया -- महावीर के सर्वोदय तीर्थ का प्रचार किया। अन्त में ईस्वी पूर्व ५०३ में सौ वर्ष की अवस्था में विपुलाचल से निर्वाण प्राप्त किया' । श्वेताम्बर परम्परानुसार पांचवें गणधर सुधर्म का परिचय निम्न प्रकार है। पंचम गणधर सुधर्मा 'कोल्लाग' सन्निवेश के अग्नि वैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम महिला और पिता का नाम धम्मिल था। इन्होंने भी जन्मान्तर विषयक अपने सन्देह को मिटाकर भगवान महावीर के चरणों में पांच सौ छात्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। ये भगवान महावीर के उत्तराधिकारी हुए, और महावीर निर्वाण के बीस वर्ष बाद तक संघ की सेवा करते रहे। अन्य सभी गणधरों ने इन्हें दीर्घ जीवी समझ कर अपने-अपने गण सम्हलवाए। इनकी थायु सौ वर्ष के लगभग थी । ५० वर्ष की वय में दीक्षा ली और ४२ वर्ष छद्मस्थ पर्याय में १- मन्नि तिदिने लब्धा सुधर्मः श्रुतपारगः ॥ लोकालोकावलोकंकालोकमन्त्यविलोचनम् ॥ - उत्तर पु०, ७६।५२७-५१८
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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