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नवी-दसवीं शताब्दी के आचार्य
२१७ काव्य, छन्द, अलंकार, कोश और महाकाव्यों का अध्ययन किया। विद्याध्ययन से उसकी बुद्धि शान पर रखे हुए रत्न के समान चमक उठी। प्रतिभा सम्पन्न विद्वान देखकर प्राचार्य के हर्प का ठिकाना न रहा ।
__ श्राचार्य ने गंगराज के मंत्री चामुण्ड राय से उसका परिचय कराया । चामुण्डराय गुणीजनों के प्राधयदाता तो थे ही, उन्होंने तीक्ष्ण बुद्धि और प्रतिभा सम्पन्न युवक को पाकर उसकी सहायता की। वे इसके पोषक थे। अब कवि राज्य मान्य था और राजा की और से उसे सुर्वण दण्ड, चवर, छत्र' हाथी इसके साथ चलते थे। इसकी कविरल, कविचक्रवर्ती, कविकुंजरांकुश और उभयभाषाकवि उपाधियां थीं। कवि रन्नो अपनी काव्यकला, कोमल कल्पना, चारू चिन्ता औरप्रस्फुटित प्रतिभा और प्रसाद गुण युक्त शैली के कारण उसकी तत्कालीन कन्नड़ विद्वानों पर प्रभुता छा गई थी। इससे उसे असाधारण ख्याति मिली। कवि की इस समय दो कृतियाँ उपलब्ध हैं। एक का नाम 'प्रजितपुराण, और दूसरी कृति का नाम साहस भीम विजय या गदायुद्ध है।
अजित पुराण में जैनियों के दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जीवन परिचा १२ ग्राश्वासों में अंकित है। यह गा पद्यमय चम्पू ग्रन्थ है जिसे काव्यरत्न और पुराण तिलक भी कहते हैं। कवि ने इस ग्रन्थ को रचना शक सं०१५ (सन् ६६३ ई०) वि० सं० १०५० में बनाकर समाप्त की थी। कवि कहता है कि जिस तरह मैं इस ग्रन्थ की रचना से 'वैश्यवंशध्वज' कहलाया, उसी तरह आदिपुराण की रचना के कारण पप 'दाह्मणवंशध्वज' कहलाया था।
तलपदेव (९७३-१७) के दो सेनापति थे। मल्लप और पुण्यमय्य इनमें से पुण्यमय्य तो अपने शत्र गोविन्द के मग्य अड़कर कावेरी नदी के तट पर मारा गया । और मल्लप तैलिपदेव के स्वर्गवासी होने के बाद पाहब मल्ल के राजा होने पर (सन् १९७ से १००८ दस सौ पाठ) तक मुख्याधिकारी हुआ। इसकी प्रतिमब्बे नाम की एक सुन्दर कन्या थी, जो चालुक्य चक्रवर्ती के महामंत्री दल्लिप के पुत्र नागदेव को बिवाही थी। नागदेव बालकपन से बड़ा साहसी और पराक्रमी हुआ। अतएव चालुक्य नरेश पाहय मल्ल ने प्रसन्न होकर इसे अपना प्रधान सेनापति बनाया। यह अनेक युद्धों में अपना पराक्रम दिखलाकर विजयो हुआ और अन्त को मारा गया । इसकी लघुपत्नी गुडमब्बे तो इसके साथ सती हो गई, किन्तु अतिमध्चे अपने पुत्र अन्नगदेव की रक्षा करती हुई व्रत निष्ठ होकर रहने लगी। इसकी जैनधर्म पर अगाध श्रद्धा थी। इसने सुवर्णमय और रत्नजटित एक हजार जिन प्रतिमाएं बनवाकर स्थापित की। और लाखों रुपयों का दान किया। इस दानशोला स्त्रीरत्न के सन्तोष के लिए कविरत्न ने उक्त अजितपुराण की रचना की थी । ऐसा उस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात हाता है। - साहस भीमविजय या गदा युद्ध-यह दस प्राश्वासों का गद्य-पद्यमय चम्पू अन्य है। इसमें महाभारत की कथा का सिहावलोकन करते हुए चालुक्य नरेश आहब मल्ल का चरित्र लिखा है। और अपने पोषक पाहव मल्लदेव की भीमरोन के साथ तुलना की है। रचना विलक्षण और प्रासाद गुण को लिए हुए है। कर्नाटक कवि चरित के कर्ता ने लिखा है कि रन्न कवि की रचना प्रौढ़ और सरस है, पद्य प्रबाह रूप और हृदयग्राही है । साहस भीम विजय को पढ़ना शुरू करके फिर छोड़ने को जी नहीं चाहता।।
महाभारत युद्ध में कौरव-पाण्डवों की सैन्य शक्ति के क्षय के साथ दुर्योधन के सभी प्रात्मीयजनों के मारे जाने पर, तथा पाण्डवों के अभिमन्यु जैसे वीर युवक के स्वर्गवासी हो जाने पर, लोगों को यह धारणा हो गई यो कि दुर्योधन अकेला पाण्डवों को विजित नहीं कर सकता। यद्यपि वह वीर क्षत्रिय, महापराक्रमी, गुरुभक्त, हठी, प्रति काराभिलाषी, युद्ध प्रिय एवं उदार है, तो भी उसने माता-पिता, भीष्म और संजय द्वारा उपस्थित संधि के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। वह उसी समय सगर्व संजय से कहता है कि ये सबल भुजाएँ और मेरी प्रचंड गदा मौजूद है। अतएव मुझे किसी की सहायता की प्रावश्यकता नहीं है। अंधपिता धृतराष्ट्र पाण्डवों को प्राधा राज्य देकर संघी करने की प्रार्थना करता है, माता गांधारी भी दीनता से उसका समर्थन करती है। तो भी उस पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
अन्त में दुर्योधन और भीम का भीषण गदायुद्ध होता है । उसमें भीम की गदा के प्रहार से दुर्योधन के उरु भंग हो गए। जिससे वह मरणासन्न हो गया। उरुषों की असह्य पीड़ा को सहता हुअा भी दुर्योधन पांडवों से बदला लेने के लिए अश्वत्थामा से कहता है कि पांडवों को मार कर उनके मस्तक लाकर मुझे दिखलामो जिससे मेरे प्राणशान्ति से निकल सकें।