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________________ २१८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ इसमें सन्देह नहीं कि दुर्योधन महा अभिमानी और ईर्पालु और कौरवों का पक्षपाती था। वह पांडवों को निर्दोष मानता हुमा भी उनके प्रतिकार करने की भावना रखता था । फिर भी उसमें कुछ मानवोचित गुण भी थे, उनको सर्वथा भुलाया नहीं जा सकता । जब वह युद्ध स्थल म भारे गए अपने स्नेहा पार गुरुजना प्रादि का देखता है तब वह उनके प्रति स्वाभाविक गुरु भक्ति प्रकट करता हुआ स्नेहो जनों के वियोग से खिन्न हाता है। और उनक विनाश में दुर्नय एवं दुष्टता को कारण मानता हुआ पश्चाताप करता है। और भीष्म के चरणों में पड़ कर उनसे क्षमा मांगता है। प्रागे शत्रुकुमारों में पराक्रमी बालक अभिमन्यु को देखता है तब उसके साहस और वोरता का मुक्त कंठ से प्रशंसा करता हुआ दुर्योधन हाथ जोड़कर प्रार्थना करता है कि मुझे भी इसी प्रकार वीर मरण प्राप्त हो। रन कवि का 'गदायुद्ध' बहुत ही मार्मिक और वस्तुतत्व का यथार्थरूप में चित्रण करता है। महाभारत में सर्वत्र भीम के साहस की प्रशंसा मिलेगी। किन्तु रन्न कवि के गदायुद्ध में दुर्योधन के सामने भोम का साहस निस्तेज (फीका) हो जाता है अधिकांश ग्रन्थ कर्ताओं ने द्रोपदि के वस्त्रापहरण आदि अनुचित घटनाओं के कारण दुर्योधन को कलंकी मादि अपशब्दों से दोषी ठहराया है वह हठी होते हुए भी उसमें उदारता आदि गुण अवश्य थे। भीम भी अभिमानी प्रतापी और साहसी था। उसकी गदा प्रहार से जब दुर्योधन के उरु भंग हो गए। उसको असह्य पीड़ा से पीडित और रक्त माद्रित मरणासन्न दुर्योधन के मुकुट को लात मारना किसी तरह भी उचित नहीं कहा जा सकता, वह भीम का अनुचित कार्य था । रन्न का दुर्योधन अन्ततक क्षात्र धर्म का पालन करता है। भीम में हंसी आदि कछ ऐसे दोष भी थे जिसके कारण महा प्रतापी नारायण कृष्ण भी पाण्डवों से विरक्त हो गए थे। रन्न कवि का 'रन्न कन्द' नाम का एक छोटा-सा कविता ग्रन्थ भी है। गुणनन्दि गुणनन्दि नन्दि संघ देशीय गण के आचार्य ब्लाकपिच्छ के शिष्य थे। जो भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले पन बन्धु थे। मुनियों के स्वामी देशीय गण में अग्रणीय, और गुणाकर तथा गणधर के समान थे। उनकी विद्वत्ता और महत्ता का सहज ही अनुमान हो जाता है। जैसाकि कि निम्न पद्य से प्रकट है: बभूव भच्याम्बुजपद्मबन्धुः पतिमुनीनां गणभृत्समानः। सदप्रणी देशगणाग्रगण्यो गुणाकरः श्रीगुणनन्दिनामा ॥ श्रवण बेल्गोल के ४७ व शिलालेख में बतलाया गया है कि गुणनन्दि भाचार्य के तीन सौ ३०० शिष्य थे। उनमें ७२ सिद्धान्त शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान थे। विबुधगुणनन्दि भी इन्हीं के शिष्य थे। विबुधगणनन्दि के शिष्य अभय नन्दि थे उन शिष्यों में देवेन्द्र सैद्धान्तिक सबसे अधिक प्रसिद्ध थे। इन देवेन्द्र सैद्धान्तिक के एक शिष्य कलधौतनन्दि या कनक नन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती थे जिन्होंने इन्द्रनन्दि गुरु के पास सिद्धान्त शास्त्र का अध्ययन किया था और सत्व स्थान की रचना की थी। इस लेख के उत्कीर्ण होने का समय शक सं० १०२६ सन् ११०७ है। किन्तु प्रस्तुत प्राचार्य का समय उक्त शिलालेख से पूर्ववर्ती है। वे दशवों शताब्दी के विद्वान थे। यशोदेव यशोदेव-गौड़ संघ के मान्य मूनि थे। उग्र तप के प्रभाव से जिनका शासन देवता से समागम तछियो गुगनन्दि पण्डित यतिश्चारित्रचक श्वरस्तकं प्राकरणादि शास्त्रनिपुण साहित्य विद्यापतिः ! मिथ्यावादिमदान्धसिन्धुरघटासंघट्टकण्ठीरवो, मध्याम्भोज दिवाकरो विजयता कन्तपदयापहः ॥७॥ तच्छिष्या स्त्रिशताविवेकनिधयश्शास्त्राब्धिपारङ्गतास्तेषुत्कृष्टता द्विसप्ततिमिता सिद्धान्त शास्त्रार्थकव्याख्याने पटको विषिषचरितास्तेषु प्रसिद्धो मुनिः । नानानूननयप्रमाणनिपुणो देवेन्द्रसैद्धान्तिकः ॥ -जैन लेख सं०भा०१पृ०५७-५८
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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