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________________ ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य २६५ चामुण्डराय चामुण्डराय — ब्रह्मक्षत्रिय वंश के वैश्य कुल में उत्पन्न हुए थे। शिलालेख में इन्हें 'ब्रह्मक्षत्र कुलोदयाचल शिरोभूषामणि' कहा गया है । यह गंगवंशी राजा राजमल्ल के प्रधान मंत्री और सेनापति थे। राचमल्ल चतुर्थ का राज्यकाल शक सं० ८६६ से ९०६ ( वि० सं० १०३१ से १०४१) तक सुनिश्चित है। ये गंगवज्रमारसिंह के उत्तराधिकारी थे। चामुण्डराय इनके समय भी सेनापति रहे हैं। इनका घरु नाम 'गोम्मट' था और 'राय' राजा राचमहल द्वारा प्रदत्त पदवी थी । इस कारण इनका नाम गोम्मटराय भी था बाहुबलि की मूर्ति का नाम 'गोम्मटजिन' और पंच संग्रह का नाम 'गोम्मट संग्रह सूत्र इन्हीं के नाम के कारण हुआ है क्योंकि चामुण्डराय के प्रश्न के अनुसार ही धवलादि सिद्धान्तों पर से नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मट सार की रचना की है । मारसिंह और इनके उत्तराधिकारी पुत्र राजमल्ल का समय गंगवंश के लिए भयावह था क्योंकि पश्चिमी चालुक्य, नोलम्ब तथा पल्लव आदि गंग वंश के शत्रु थे । चालुक्यों के खतरे के विनाश का श्रेय चामुण्डराय की है। श्रवण गोल के कूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ पर उत्कीर्णलेख ( ६७४ ई०) में लिखा है कि इस प्रसिद्ध दुर्गपर हुए श्रमण ने faea को भ्राश्चर्य में डाल दिया । चामुण्डराय ने अपने पुराण में इस बात को स्वीकार किया है कि इस विजय में ही उन्हें 'रणरंग सिंह' की उपाधि प्राप्त हुई थी । चामुण्डराय केवल महामात्य ही नहीं थे किन्तु वीर सेनानायक भी थे। इनके समान शूरवीर भीर दढ़ स्वामी भक्त मंत्री कर्नाटक के इतिहास में अन्य नहीं हुआ । इन्होंने अपने स्वामी के लिए अनेक युद्ध जीते थे । गोविन्दराज, वेंकाडुराज आदि अनेक राजाओंों को परास्त किया था। इसके उपलक्ष्य में उन्हें समरधुरंधर, वीरमातण्ड, रणरंग सिंह, वैरिकुल-काल दण्ड, असहाय पराक्रम, प्रतिपक्ष राक्षस, भुज विक्रम और समर - परशुराम श्रादि विरुद प्राप्त हुए थे। और कौनसी उपाधि किस युद्ध के पर मिली इसका उल्लेख निम्न प्रकार है :खडग युद्ध में वज्वलदेव को हराने पर उन्हें 'समरधुरंधर उपाधि प्राप्त हुई थी। नोलम्ब युद्ध में गोनूर [ के मैदान में उन्होंने जो वीरता दिखलाई उसके उपलक्ष में 'वीर भार्तण्ड' की उपाधि मिली। उनकांगी के किले में राजादित्य से वीरता पूर्वक लड़ने के उपलक्ष में ' रणरंग सिह उपाधि प्राप्त हुई। और वागेयूर वा (वामीकूर ) के किले में त्रिभुवन वीर को मारने और गोविन्दराज को उसमें न घुसने देने के उपलक्ष में वैरीकुल- कालदण्ड' उपाधि प्राप्त हुई। राजा काम के किले में राज बास, सिवर, कुणामिक आदि योद्धाओं को परास्त करने के कारण उन्हें 'क्रम' उपाधि से अलंकृत किया गया। अपने छोटे भाई नागवर्मा के घातक मुदुराचय को, जो चलदंक गंग और गंगर भट्ट के नाम से प्रसिद्ध था, मार डालने के उपलक्ष में 'समरपरशुराम' पद से विभूषित किया गया। एक कबीले के मुखिया को पराजित करने के उपलक्ष में 'प्रतिपक्ष-राक्षस' उपाधि मिली। श्रौर अनेक योद्धाओं को मारने के कारण उन्हें 'भट्टमारि' उपाधि प्राप्त हुई । धार्मिकता और नैतिकता की दृष्टि से भी उन्हें 'सम्यक्त्व रत्नाकर, सत्य युधिष्ठिर, धौर सुभट चूडामणि आदि उपाधियां प्राप्त हुई । इन सब उपाधियों से ऐसा लगता है कि चामुण्डराय अपने समय का कितना प्रतापी और वीर सेनापति था । यह केवल वीर सेनापति ही नहीं था किन्तु अच्छा विद्वान् और कवि भी था। उनकी उपलब्धियां उनकी महत्ता थोर गौरव को संद्योतक हैं । १. शिलालेख नं० १६५ जैन लेख सं० प्रथम भाग लेख नं० १०६ । २. श्रीमदप्रतिहत प्रभावस्याद्वादशासन गुहाभ्यन्तर निवासिप्रवादि मदांधसिधुर सिंहायमान सिंहनन्दि मुनीन्द्राभिनन्दित गंगवंलाम राज सर्वज्ञानेक गुणनामधेय भागधेय श्रीमद राजमल्ल देव महीबल्लभ महामात्यपदविराजमान रणरंग मल्लासहायपराकमगुणरत्नभूषण सम्यक्त्वरत्न निलयादिविविध गुणनाम समासादित कीर्तिकान्त श्रीमच्चामुंडराय भव्य पुण्डरोक'''। -मंद प्रबोधिकाटीका उत्पानिका वाक्य
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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