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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
उपलब्धियां
गोम्मट- संग्रह सुत्तं गोम्मट सिहरुवार गोम्मट जिणो य ।
गोम्मट राय-विणिम्मिय-दक्षिण कुक्कूड जिणो जयउ॥६६५
इस गाथा में तीन कार्यों का उल्लेख है और उन्हीं का जयघोष किया गया है। गोम्मट संग्रह सूत्र गोम्मट जिन और दक्षिण कुक्कूड जिन । गोम्मट जिन से भगवान नेमिनाथ को उस एक हाथ प्रमाण इन्द्रनील मणि की प्रतिमा से है, जिसे गोम्मटराय ने बनवा कर चन्द्रगिरि पर स्थित अपने मन्दिर में स्थापित किया था और दक्षिण कुक्कूड जिन से अभिप्राय बाहुबली की उस विशाल मूर्ति से है जो पोदनपुर में भरत चक्रवर्ती ने बाहुबली की उन्हीं के शरीराकृति जैसी मूर्ति बनवाई थी, जो कुक्कुटसों से व्याप्त होने के कारण दुर्लभ दर्शन हो गई थी। उसी के अनुरूप यह मूर्ति विन्ध्यगिरि पर विराजमान की गई है। दक्षिण विशेषण उसकी भिन्नता का द्योतक है।
चामुण्डराय की अमर कीति का महत्व पूर्ण प्रतीक श्रवणबेलगोल में प्रतिष्ठापित जगद्विख्यात बाहुबलि को मूर्ति है, जो ५७ फीट उन्नत और विशाल है । और जिसका निर्माण चामुण्डराय ने कराया था। और जो धूप, वर्षा सर्दी गर्मी और आंधी की बाधानों को सहते हुए भी अविचल स्थित है। मूर्ति शिल्पी को कल्पना का साकार रूप है। मूर्ति के नख आदि वैसे ही अंकित हैं जैसे उनका आज ही निर्माण हुमा है। चामुण्डराय ने बाहुबली की मूर्ति की प्रतिष्ठा ई. १८१ में कराई थी। लगभग एक हजार वर्ष का समय व्यतीत हो जाने पर भी वह वैसी ही सुन्दर प्रतीत होती है वह दश आश्चर्य के रूप में उलिखित की जाती है। दर्शक को प्रखें उसे देखते ही प्रसन्नता से भर जाती हैं। बाहुबली की यह मूर्ति ध्यानावस्थाकी है, वे केवल ज्ञान होने से पूर्व जिस रूप में स्थित थे, वही लता वेलें जो बाहनों तक उत्कीर्णित हैं और नीचे सो को वामियां भी बनी हुई हैं। उसी रूप को कलाकार ने अंकित किया है । दर्शक मूर्ति को देखकर तप्त नहीं होता। उसकी भावना उसे बार-बार देखने की होती है । मूर्ति दर्शन से जो आत्म लाभ होता है वह उसे शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता ! उसके प्रवलोकन से यह भावना अभिव्यक्त होतो है कि अन्तिम समय में इस मूर्ति का दर्शन हो । चामुण्डराय की यह ऐतिहासिक देन महान् प्रौर ममर है। शिलालेख में चामुण्डराय द्वारा बनवाये जाने का उल्लेख है । और गोम्मट संग्रह सुत से अभिप्राय गोम्मटसार से है।
दूसरी उपलब्धि 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित' है। जिसे चामुण्डराय ने शक सं ६०० ईस्वी सन् ६७५ (वि० सं०१०३५) में बनाकर समाप्त किया था। इसमें चौबीस तीर्थकरों के चरित्र के साथ चक्रवर्ती आदि महा. पुरुषों का पावन जीवन अंकित किया गया है । इसके प्रारम्भ में लिखा है कि इस चरित्र को पहले कृषि भट्टारक तदनन्तर नन्दि मनीश्वर, तत्पश्चात् कवि परमेश्वर और तत्पश्चात् जिनसेन गुणभद्र स्वामी इस प्रकार परम्परा से कहते आये हैं, और उन्हीं के अनुसार मैं भी कहता हूं। मंगलाचरण में युद्धपिच्छाचार्य से लेकर अजितसेन पर्यन्त प्राचार्यों की स्तुति की है और अन्त में श्रुत केवली दशपूर्वधर, एकादशांगधर, प्राचारांगधर, पूर्वाग देशवर के नाम कह कर महबली, माघनन्दि, भूतबलि पुष्पदन्त गुणधर शाम कुण्डाचार्य, तम्बू लूराचार्य, समन्तभद्र, शुभनन्दि रविनन्दि, एलाचार्य, नागसेन, वीरसेन जिनसेन भादि का उल्लेख किया है। फिर अपने गुरु की स्तुति की है। यह पुराण प्रायः गधमय है, पद्य बहुत ही कम हैं । कनड़ी भाषा के उपलब्ध ग्रंथों में चामुण्डराय पुराण ही सबसे प्राचीन माना जाता है । चामुण्डराय के गुरु का नाम प्रजितसेनाचार्य है, जो उस समय के बड़े भारी विद्वान् थे। तपस्वी
और क्षमाशील थे। उनके अनेक शिष्य थे। बंकापुर में उन्होंने अनेक शिष्यों को शिक्षा दी। प्राचार्य नेमिचन्न सिद्धान्त चक्रवर्ती पर भी उनका स्नेह था । चामुण्डराय के प्रश्नानुसार ही उन्होंने पंचसंग्रह (गोम्मटसार को रचना की थी । चामुण्डराय वीर पोर दानी थे।) जनधर्म के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उससे भारतीय इतिहास में उन्हें प्रमर बना दिया है।
तीसरी उपलब्धिारित्रसार या भावनासार है। जिसकी उन्होंने तत्त्वार्थ वार्तिक, राद्धांत सत्र, महापराण और पाचार ग्रन्यों से सार लेकर रचना की है, जैसा कि उसके अन्तिम निम्न पद्यसे प्रकट है :
सत्वाधराति महापुराणे स्वाधारशास्त्रेषु च विस्तरोक्तम् माल्यात्समासादनुषोगवेदी चारित्रसारं रणरंगसिंहः ॥
प्राचारामधर, पूर्वाग देशवा
बाल पुष्पदन्त गुणधर शाम
रविनन्दि, एलाचार्य, नागसेन