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________________ '२६४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ ११२५ (सन् १२०३, वि० सं० १२६०) में बनाकर समाप्त की है। पं० टोडरमल्ल जी ने इसी के अनुसार क्षपणा. सार की टीका की है। इसी से उन्होंने अपनी सम्यक्ज्ञान चन्द्रिका टीका को लब्धिसार क्षपणासार सहित गोम्मटसार की टोका बतलाई है। त्रिलोकसार-यह करणानुयोग का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी गाथा संख्या १०१८ है। जिनमें कुछ गाथाएँ माधवचन्द्र विद्य की भी हैं। जो नेमिचन्द्राचार्य को सम्मति से शामिल की गई हैं । यह ग्रन्थ प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोयपणत्ती से अनुप्राणित है। इसमें सामान्यलोक, भवन, व्यन्तर, ज्योतिष, वैमानिक, और नरक-तिर्यक, लोक ये अधिकार हैं । जम्बूदीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, भवनवासियों के रहने के स्थान, पावासभवन, वायु परिवार आदि का विस्तृत वर्णन है । ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक, तारा एवं सूर्य चन्द्र के प्रायु, विमान, गति, परिवार प्रादि का सांगोपांग वर्णन दिया है । त्रिलोक की रचना सम्बन्धी सभी जानकारी इससे प्राप्त की जा सकती है। इस पर नेमिचन्द्राचार्य के प्रधान शिष्य माधवचन्द्र विर की संस्कृत टीका है। गोम्मटसार की तरह इस ग्रंथ का निर्माण भी प्रधानत: चागहराम को लगरहरके-के जसि बोधनामा है ऐसा टीकाकार माधवचन्द्र ने टीका के प्रारम्भ में व्यक्त किया है। संस्कृत टीका सहित यह ग्रन्थ मणिकचन्द्र ग्रन्थ माला से प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ की हिन्दी टोका पंडित टोडरमल्ल जी ने की है, जिसमें उसके गणित विषय को अच्छी तरह से उद्घाटित किया है। प्रार्यसेन प्रार्यसेन-मूलसंघ बरसेनगण और पोगरीगच्छ के प्राचार्य ब्रह्मसेन अतिप के शिष्य थे। जो अनेक राजाओं से सेवित थे। इनके शिष्य महासेन थे । जैसा कि शिलालेख के निम्न वाक्यों से प्रकट है: श्रीमूलसंधे जिनधर्ममूले, गणाभिधाने बरसेन नाम्नि। गच्छेसु तुच्छेऽपि पोगर्य्य मिक्खे, संन्तयमानो मुनिरार्यसेनः ॥ तस्यार्यसेनस्य मुनीश्वरस्य शिष्यो महासेन महामुनीन्द्रः। सम्यक्त्वरत्नोज्वलितान्तरंगः संसारनीराकर सेतुभूत [:] ॥ इस शिलालेख में महाप्लेन मुनीन्द्र के छात्र चांदिराज ने, जो बाणसवंश के तथा केतल देवी के मोफिसर थे। उन्होंने पोन्नवाड (वर्तमान होल्वाड) में त्रिभुवन तिलक नाम का चैत्यालय बनवाया,और उसमें तीन वेदियों में शान्ति नाथ, पार्श्वनाथ पौर सुपार्श्वनाथ की तीन मूर्तियां बनवाकर प्रतिष्ठित की, और उसके लिये कुछ जमीन तथा मकानातं शक सं०६७६ (सन् १०५४) जयसंवत्सर में वैशाख महीने की अमावस्या सोमवार के दिन दान दिया। इससे पार्यसेन का समय सन् १०५४ (वि० सं० ११११) सुनिश्चित है। महासेन महासेन-मूलसंघ बरसेनगण और पोगरिगच्छ के आचार्य आर्य सेन के शिष्य थे। इनके गहस्थ शिष्य चांदिराज ने, जो वाणसवंश में उत्पन्न हुआ था। उक्त चांदिराज ने त्रिभुवन तिलक नान का चैत्यालय बनवाया, और उसमें शान्तिनाथ और पार्श्व-सुपार्श्व की मूर्तियां बनवाकर प्रतिष्ठित की, और उनकी पूजादि के लिये महासेन को दान दिया। यह लेख शक सं० ६७६ सन् १०५४ का है । अत: महासेन का समय विक्रम को ११वीं शताब्दी का मध्यकाल होना चाहिये। १. अमुना माधवचन्द्र दिव्य गरिना विद्य चक्कशिना, क्षपणासार मकारि बाहुबलि सन्मश्रीश संज्ञप्तये । शककाले शरसूर्यचन्द्र गणिते (११२५) जाते पुरे क्षुल्लके शुभदे दुदुभिवत्सरे दिजयतामाचंन्द्रतारं भुवि ।।१६ --क्षपणासार गम प्रशस्ति २. जैन लेख सं०.भ.२ पृ० २२७-२८) ३. जैन लेख संग्रह अ-२ पृ० २२७-२८)
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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