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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य २६३ लिखी हुई है । और जिसका प्रमाण पांच हजार श्लोक जितना है, जिसकी भाषा प्राकृत और संस्कृत मिश्रित है । 3 उसका मंगल और प्रतिज्ञा वाक्य इस प्रकार है- पमित्र जिणिवचंद गोमम्मट संगह समग्ग सुत्ताणं । केसिपि भणिस्सामो विवरणमण्णे समासिज्ज || तत्थ तावसि सुताणमादिए मंगलभणिस्स माणट्ठविसय पद्दण्णा करण व कमस्त सिद्धिमि च्चाइ गाहा सत्तस्तत्थो उच्चणेणट्ठ विवरणं कहिस्सामो ॥ इस पंजिका के रचयिता है। इस प्रकार दी है श्रुतिकीर्ति, मेघचन्द्र, चन्द्रकीति श्रौर गिरिकोर्ति जैसा कि उसके पद्यों से प्रकट है: सो जयउ दासपुज्जो सिषासु पुज्जासु पुज्ञ्ज-पय पउमो । पत्रिमल वसु पुज्ज सूदो सुदकित्ति पिये-पियं वादि ॥ १ समुदिय वि मेघचंदपसाव खुव कि तियरो | जो सो किसि भणिज्जह परिपुज्जिय चंद फितिसि ॥२ जेणासेस वसंशिया सरमई ठाणंत रागोहणी । जं गाढं परिऊिण मुहया सोजत मुद्दासई । जस्सा पुरुष गुणप्पभूव रयणा लंकार सोहग्गिणा । जाता सिरिगिरिवित्तिदेव जविणा तेजसि गंथो को ॥ ३ ॥ इस पंजिका प्रमाण पांच हजार श्लोक जितना बतलाया है ? यह पंजिका प्रकाशन के योग्य है। और छठी टीका सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका है, जिसके कर्ता पण्डित प्रवर टोडरमल हैं यह टीका विशाल है, और ढूंढारी भाषा हिन्दी में लिखी गई है। लम्बिसार अपणासार - इसमें बतलाया गया है कि कर्मों को काटकर जीव कैसे मुक्ति प्राप्त कर सकता अथवा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थिति हो सकता है। इसका प्रधान प्राधार कसाय पाहुड और उसकी जयधवला टीका है । इसमें तीन अधिकार हैं- दर्शनलब्धि, चारित्रलब्धि, और क्षायिक चारित्र । प्रथम अधिकार में पांचलब्धियों के स्वरूप आदि का वर्णन है, जिनके नाम हैं- क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमें से प्रथम चार लब्धियां सामान्य हैं, जो भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकार के जीवों के होती हैं। पांचवीं करणलब्धि सम्यग्दर्शन मौर सम्यक्चारित्र की योग्यता रखने वाले भव्यजीवों के ही होती है। उसके तीन भेद हैं-- अघःकरण, प्रपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण | दूसरे अधिकार में चारित्रलब्धि का स्वरूप और चारित्र के भेदों उपभेदों आदि का संक्षिप्त कथन है । साथ ही उपशमश्रेणी पर चढ़ाने का विधान है। तीसरे अधिकार में चारित्र मोह की क्षपणा का संक्षिप्त विधान है, जिसका अन्तिम परिणाम मुक्ति या शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि है । इस तरह यह ग्रंथ संक्षेप में श्रात्मविकास की कुंजी अथवा साधन-सामग्री को लिये हुए है। लब्धिसार की संस्कृत टीका नेमिचन्द्राचार्य की है। पं० टोडरमल्ल जी ने इसके दो अधिकारों की हिन्दी टीका उक्त संस्कृत टीका के अनुसार की है। तीसरे "क्षपण' अधिकार की गद्य संस्कृत टीका माधवचन्द्र त्रैविद्य देव की है, जिसे उन्होंने बाहुबली मंत्री के लिये क्षुल्लकपुर में शक सं० ३. पयडी सील सहाबो- प्रकृतिः शीलं स्वभावइत्येकार्थ: स्वभावश्चस्वभाववं तमपेक्षते । तदविनाभावित्वासस्य । यतः कस्यायं स्वभावः कथ्यत इत्याह जीवगाणं, जीवकर्मणोः । कहमेत्य अगद्दे कम्मग्रहणं । कम्मण सरीरसेतव अंग सदेश विवविवदत्तादो । कड्ट कम्म कलावस्तेय कम्मण सरीस्तादो य । जवा अंग सरग कम्माकम्म सरीराण ग्रहणं । कम्मेणोकम्मेहि पयो जगादो। जीवंगारणमिदि किम मुच्पदे । भावकम्म दव्वकम्म णोकम्माणं पयड परूपरणट्ठ -गो० क० पंजिका
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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