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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
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इन्द्रसेन भट्टारकद्रविल (उ) संघ, सेनगण, मालन अन्वय के भट्रारक मल्लिसेन के प्रधान शिष्य थे इन्हें चानुक्य कुलभूषण राजा त्रिभुवनमल्ल देव की रानी जाकल देवी से, जो जैन धर्मपरायणा और जिन पूजा में निरत रहता था और इंगुणिगे ग्राम का शासन करती थी। वह जैन धर्मपरायणा रानी तिक्क को पुत्रो थो। उसके पति चालुक्य कुलभूषण त्रिभुवनमल्लदेव थे। जो कल्याणपुर के शासक थे। उन्होंने रानी को जैन धर्म संपरान्मुख करने को प्रतिज्ञा ले रक्खी थी। परन्तु वह अपने उस कार्य में सफल न हो सका।
एक दिन राना के सौभाग्य से एक व्यापारी महुमाणिक्य देव की प्रतिमा लेकर पाया, और रानी के सामने वह अपना विनयभाव दिखला रहा था कि उसी समय राजा त्रिभुवनमल्लदेव पा गया। उसने रानी से कहा कि यह जिनमति अनुपम सुन्दर है, इसे अपने आधीन ग्राम में प्रतिष्ठित करो, तुम्हारे धर्मानुयायियों के लिये प्रेरणाप्रद होगी तब राजा की आज्ञा से रानी ने मूति की प्रतिष्ठा भी करायी आ दर मन्दिर भी बना दिया। और उसकी ध्यवस्था उक्त इन्द्रसेन भट्टारक का सौंपी। यह दान चालुक्य विक्रम के १८वे राज्यवर्ष में सन् १०५.४ में श्रामुख संवतसर के फाल्गुण सुदी १०मी सोमवार के दिन समारोह पूर्वक् भट्टारक जी के चरणों की पूजा करके सौंपा गया था।' दान में २१ वृहत् मत्तर, प्रमाण कृष्य भूमि, १ बगीचा और जन मन्दिर के समीप का एक घर दिया।
माणिक्यनन्दी माणिक्यनन्दी नन्दि संघ के प्रमुख प्राचार्य थे। और धारा नगरी के निवासी थे। वे व्याकरण और सिद्धान्त के ज्ञाता होने के साथ दर्शन शास्त्र के तलदृष्टा विद्वान थे। उस समय धारा नगरी विद्या का केन्द्र वन। हई थी। बाहर के अनेक विद्वान् वहां आकर अपनो विद्या का विकाम करते थे। वहां अनेक विद्यापीठ थे जिनम छात्र रहकर विद्याध्ययन करके विद्वान बनते थे । अनेक सारस्वत विद्वान् प्राचार्य जैन धर्म का विकास और प्रचार कार्य में संलग्न रहते थे। उस समय धारा नगरी का प्रभु भोज देव था, जो राज्य कार्य का संचालन करते हझा भी विद्या व्यसनी, कवि और शास्त्र कर्ता था । वह विद्वानों का बड़ा आदर करता था। वहां के विद्या पीठ में सिद्धान्त, दर्शन, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यादि विविध विषयों के ग्रन्थों का पठन-पाठन होता था । सुदर्शन चरित के कर्ता नयनन्दी ने वहां की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख किया है। सुनक्षत्र, पपनन्दी, विष्णुनन्दो, नन्दनन्दी, विश्वनन्दी, विशाखनन्दी, गणीरामनन्दी, माणिक्यनन्दी नयनन्दी, हरिसिंह, श्रीकुमार, जिन्हें सरस्वती कुमार भी कहा जाता था, प्रभाचन्द्र, और बालचन्द्र । दूसरी परम्परा लाड़ वागड गण के बलात्कारगण को थी। जिसमें सागरसेन, प्रवचनसेन, और श्रीचन्द्रादि विद्वानों का उल्लेख पाया जाता है।
माणिक्यनन्दी गणीरामनन्दी के शिष्य थे। जो भारतीय दर्शन के साथ जैन दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनके अनेक विद्या शिष्य थे। उनमें नयनन्दा प्रथम विद्या शिष्य थे। जिन्होंने सं० ११०० में धारा नरेश भोज
-- - - १. (देखो, गुलबर्गा जिले का दान-पत्र) Jainism in south India P.406-407 २. जिरिणदस्स बोरस्स तित्थे महंते महाकुंदकुदाएए एंतसंते ।
सुम्गक्साहिहारो तहा पोमणंदी, पुणो विण्डणदी तयो संदिणंदी। जिराइट धम्म सुरासी विसुद्धो, कंधारणेप गंयो जयंते पसिद्धो । भवंबोहिपोओ महा विस्सगदी, खमाजुत्तु सिद्ध तिमो विसहरणंदी। जिरिएंदागमाहासणे एयचित्तो, तवापार गिट्टाए लद्धाए जुत्तो। णरिदा मरिदेहि सो रददी, हुओ तस्स सीसो गरणी रामणंदी। भसेसाण गंथारा पारम्मि पत्तो, तवे अंग वीभवराईव मित्तो। मुगावासभूओ सुतिल्लोकणंदी महापडिभो तस्स माणिकर्णदी।
भृजगप्पयाओ इमोखाम छंदी। -(सुदसणचरित प्रशस्ति) ३.जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भाग२१२५