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नवमी-दशवीं शती के दवार्य
दिनकर, जाग, धर्म, गुणभद्र, कुशल, स्वयंभूदेव, वीरवंदक, सर्वनन्दि, कलिकाभद्र, नागदेव और भवनंदि
इन कवियों में जैन जंतर प्राकृत संस्कृत और अपभ्रंशभाके कवि शामिल हैं। जैसे गोविंद, मल्लिषेण, चतुरानन, सघन वर्द्धमान, सिद्धसेन श्रीदत्त, धर्मसेन, जिनसेन, जिनदत्त, गुणभद्र, स्वयंभूदेव, सर्वनन्दि, नाग देव और भवनन्दि आदि जैन कवि प्रतीत होते हैं। संभव है, इनमें और भी चार पांच नाम हों। क्योंकि उनका ग्रंथ परिवाद के बिना ठीक परिज्ञान नहीं होता। इससे यह भी स्पष्ट है कि उनसे पूर्व श्रनेक कवि अपभ्रंश के भी हो गये हैं ।
इन में उल्लिखित गुणभद्राचार्य राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय के शिक्षक थे। गुणभद्र का समय विक्रम की १० वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। हो सकता है कि स्वयंभू गुणभद्र के समय नहीं रहे हों, किन्तु त्रिभुवन स्वयंभू तो मौजूद थे। इसी से उन्होंने उनका नामोल्लेख किया है। जिनसेन ने अपना हरिवंश पुराण शक सं० ७०५ वि. सं० ८४० में बनाकर समाप्त किया है। स्वयंभू ने जब अपना ग्रन्थ बनाया, उस समय गुणभद्र नहीं होंगे। किन्तु हरिवंश पुराण के कर्ता के समय तक थे अवश्य रहे होंगे। अतः रिमिचरिउ के रचियता स्वयंभू देव के समय की पूर्वावधि वि० से ८०० और उत्तरावयि वि० सं० ६०० मानने में कोई बाधा नहीं जान पड़तो। अतएव स्वयंभू विक्रम को ६ वीं शताब्दी के विद्वान होने चाहिये । यदि रयडा धनंजय को बात स्वीकृत को जाय, तो राष्ट्रकूट ध्रुव का राज्य काल विस ८३७०८५१ तक रहा है। इससे भी स्वयंभू देव का समय विक्रम की 8 वीं शताब्दो का मध्य काल सुनिश्चित होता है। इससे स्वयंभूदेव पुत्राट संघीय जिनसेन के प्रायः समकालीन जान पड़ते हैं ।
कन्नड़ कवि जयकीर्ति ने 'छन्दोनुशासन' नाम का ग्रन्थ बनाया है, उसको हस्तलिखित प्रति सं० ११६२ की जैसलमेर के शास्त्र भडार में सुरक्षित है । यह ग्रंथ एच० डी० वेलंकर द्वारा सम्पादित हो चुका है। इस ग्रन्थ में कविने स्वयंभू छन्द के 'नन्दिनी' छन्द का उल्लेख किया है। कृषि जय कीर्तिका समय विक्रम को दशवीं शताब्दो का पूर्वार्ध या नौवीं शताब्दी का उपान्त्य होना चाहिये क्योंकि दशवीं शताब्दी के कवि असम ने जयोति का उल्लेख किया है। इससे भी स्वयंभू का समय ६ वीं शताब्दी आता है ।
रचनाएँ
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afe स्वयंभू त्रिभुवन स्वयंभू की तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं । पउम चरिउ, रिटणेमिचरिउ और स्वयंमू छन्द । इनमें पउमचरिउ या रामकथा बहुत 'सुन्दर कृति है। इसमें ६० सन्धियां हैं, जो पांचकाण्डों में विभक्त हैं। विद्याधर काण्ड में २०, अयोध्याकाण्ड में २२, सुन्दर काण्ड में १४, और उत्तरकाण्ड में १३ सन्धियां हैं। जिनमें स्वयंभू देव रचित ८३ सन्धियां हैं। शेष उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू द्वारा रची गई हैं । ग्रन्थ में प्रारम्भिक पीठिका के अनन्तर जम्बूद्वीप की स्थिति, कुलकरों की उत्पत्ति, अयोध्या में ऋषभदेव की उत्पत्ति तथा जीवन परिचय, लंका में देवताओं और विद्याधरों के वंश का वर्णन, अयोध्या में राजा दशरथ और राम-लक्ष्मण श्रादि की उत्पत्ति, बाल्यावस्था, जनक की पुत्री सीता से विवाह, राम-लक्ष्मण सीता का वनवास, संब्रूक मरण, सीताहरण, रावण से रामलक्ष्मण का युद्ध, सुग्रीव आदि से राम का मिलाप, लक्ष्मण के शक्ति का लगना और उपचार आदि । विभीषण का राम से मिलना, रावण मरण, लंका विजय, विभीषण को राज्य प्राप्ति, राम-सीता- मिलन, अयोध्या को प्रस्थान, भरत दीक्षा, व तपश्चरण, सीता का लोकापवाद से निर्वासन, लव-कुश उत्पत्ति, सीता की अग्नि परीक्षा, दीक्षा और तपश्चरण, लक्ष्मण मरण, राम का शोकाकुल होना, और प्रबुद्ध होने पर दीक्षा लेकर तपश्चरण करके कंवल्य प्राप्ति और निर्वाण लाभ, आदिका सविस्तर कथन दिया हुआ है।
इस ग्रन्थ में राम कथा का वही रूप दिया है, जो विमलसूरि के पउम चरिउ में और रविषेण के पद्मचरित में पाया जाता है । ग्रन्थ में रामकथा के उन सभी अंगों की चर्चा की गई है जिनका कथन एक महाकाव्य में भावश्यक होता है । इस दृष्टि से पउमचरिउ को महाकाव्य कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी । ग्रन्थ में कोई दुरूहता नहीं हैं, वह सरल श्रीर काव्य-सौन्दर्य की अनुपम छटा को लिये हुए हैं। समूचावर्णन काव्यात्मक सौन्दर्य और सरसता से स्रोत प्रोत है, पढ़ते हुए छोड़ने को जी नहीं चाहता ।
कविता की शैली जहां कथा-सूत्र को लेकर श्रागे बढ़ती है और वहां वह सरलता तथा स्वाभाविकता का
१. जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २ प्रस्तावना पृ०
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