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________________ * जन धर्म का प्राचीन इतिहास भगाट अपने छन्द ग्रन्थ में मारुत देव का उल्लेख किया है। बहुत संभव है कि वे कवि के पिता ही हों । पुत्र द्वारा पिता को कृतिका उल्लिखित होना कोई श्राश्वयं की बात नहीं है। कवि को तोन पत्नियां थीं। आदित्य देवी जिसने प्रयोध्या कांड लिपि किया था। दूसरो प्रमा (अमृतास्था) जिसने पउमचरिय के विद्याधर काण्ड की २० संधियां लिखवाई थीं और तीसरी सुब्वा, जिसके पवित्र गर्भ से 'त्रिभुवन स्वयंभू जंसा प्रतिभासम्पन्न पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो अपने पिता के समान हो विद्वान और afa था। इसके सिवाय अन्य पुत्रादिक का कोई उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु जान पड़ता है कि स्वयंभू के अन्य पुत्र भी थे। क्योंकि स्वयंभू ने पउम चरिउ की प्रशस्ति के आठवें पद्य में तिहुयण स्वयंभू लहुतणउ, वाक्य द्वारा त्रिभुवन स्वयंभू को लघु पुत्र कहा, लघु पुत्र कहने से अन्य पुत्रों के होने का भी संकेत मिलता है। त्रिभुवनने अनेक जगह अपने पिता के सम्बन्ध में बहुत सी बातें कही हैं। उनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि स्वयंभू के कई पुत्र और शिष्य थे । अन्य पुत्र तो धन के पीछे दौड़े, किन्तु त्रिभुवन को पिता को साहित्यिक विरासत मिली। कविवर स्वयंभू शरीर से दुबले-पतले और उन्नत थे, उनको नाक चपटी और दांत विरल थे। कवि स्वयंभू कोशल देश के निवासी थे। जिन्हें उत्तरीय भारत के आक्रमण के समय राष्ट्रकूट राजा ध्रुव का मंत्री रयडा धनंजय मान्यखेट ले गया था । राजा ध्रुव का राज्यकाल वि० सं०८३७ से ८५१ तक रहा है ' । धनजय, धवलइया और दइया ये तीनों पिता पुत्र आदि के रूप में सम्बद्ध जान पड़ते हैं। उनका कवि के ग्रन्थ निर्माण में सहायक रहना श्रुत भक्ति का परिचायक है । समय कवि ने ग्रन्थ में अपना कोई समय नहीं दिया है, परन्तु पद्मचरित के कर्ता रविषेण का स्मरण जरूर किया है । प्राचार्य रविषेण ने पद्मचरित को वीर निर्वाण सं० १२०३ वि० सं० ७३३ में बनाकर समाप्त किया है । यतः स्वयंभू वि० सं० ७३३ के बाद किसी समय हुए हैं। श्रेय पं० नाथूराम जी प्रेमीने लिखा है कि-स्वयंभूने रिट्टणेमि चरिउ में हरिवंश पुराण के कर्ता पुन्नाट संत्री जिनसेन का उल्लेख नहीं किया, हो सकता है कि उक्त उल्लेख किसी कारण छूट गया हो, या उन्हें लिखना स्वयं याद न रहा हो। रिट्ठमिचरिउ का ध्यान से समोक्षण करने पर या मन्य सामग्री से अनुसन्धान करने पर यह स्पष्ट जरूर हो जायगा कि ग्रन्थकर्ता ने उसको रचना में उसका उपयोग किया या नहीं। भट्टारक यशः कीर्तिके उद्धार काल से पूर्व की कोई प्रति १५ वीं शताब्दी को लिखी हुई कहीं मिल जाय तो उस समस्या का हल शीघ्र हो सकता है । स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू ने 'रिट्टणेमिचरिउ' की १०४ वीं संधि में प्राकृत संस्कृत मोर अपभ्रंश के के लगभग पूर्ववर्ती कवियों के नाम गिनाये हैं । उनमें जिन सेनाचार्य और गुणभद्राचार्य का भी नामोल्लख किया है। उनका उल्लेख निम्न प्रकार है। ७० देविल, पंचाल, गयन्द, ईश्वर, गील, कंठाभरण, मोहाकलस (मोहकलश) लोलूय (लोलुक) बन्धुदत्त, हरिदत्त, दोहल, बाण, पिंगल, कलमियंक, कुलचन्द्र, मदनोदर, गौड, श्रीसंघात, महाकवि तुरंग, चारुदत्त, रुद्द (रुद्र) रंज्ज, कविल श्रहमान, गुणानुराग, दुम्ह, ईसान, इंद्रक, वस्त्रादन, नारायण, महट्ट, सोहप्प, कीर्तिरण, पल्लवकिति, गुणिद्ध, गणेश, भासड, पिशुन, गोबिन्द, नेपाल (बेताल) विसयङ, नाग, पण्डयत्त, सुग्रीव, पतंजलि, बोरसेन मल्लिषेण मधुकर चतुरानन (चउमुख) संघसेन, बंकुय, वर्द्धमान सिद्धसेन, जीव या जीवदेव, दयोर्वारिद, मेघाल विलालिय, पुण्डरीक, वसुदेव, भीउय, पुण्डरीक, दृढमति, गृहत्थि भावक्ष, यक्ष, द्रोण, पणभद्र, श्रीदत्त धर्मसेन, जिनसेन, : १. सब्वोति जोमोह वित्ताय विद्वत्त दव्त्र संता । तिहूषण संभूणा पण गहियं मुकइत - संताणं ॥ -- अन्तिम २. अएण पहर गर्ने छिव्वरण से परिवदते । प० ३. हिन्दी काव्यधारा पु० २३ ३, ७, ९ और १० ० १ ० २४
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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