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________________ १८९ नवमी दशवीं पाताब्दी के आचार्य पानी को भी कड़ा कर दिया था । उसका राज्य उत्तर में गंगा के तट तक पहुंच गया था। लोकसेन को प्रशस्ति के अनुसार उस समय वही सम्राट था। उस समय बंकापुर जन-धन से सम्पन्न नगर था, उसे वनवास देश की राजधानी बनने का भी गौरव प्राप्त है लोकसेन बंकापुर के निवासी थे। यह धारवाड जिले में स्थित है । लोकसेन ने उत्तर पुराण की अपनी प्रशस्ति के १५३ पद्य में गुणभद्राचार्य की स्तुति करते हुए लिखा है कि-'बे गुणभद्राचार्य जयवंत रहें, जो समस्त योगियों के द्वारा बन्दनीय हैं, सब श्रेष्ठ कवियों में अग्रगामी हैं, आचार्यों के द्वारा वन्दना करने योग्य हैं, जिन्होंने मदन के विलास को जीत लिया है, जिनकी कोति रूपा पताका समस्त दिशानी में फहरा रही है। जो पापरूपी वृक्ष को काटने के लिये कुछार के समान है, और समस्त राजानों के द्वारा वन्दनीय है।' लोकसेन ने यह प्रशस्ति महामंगलकारी पिंगल नामक शंक संवत श्रावण ददि पंचमी गुरुवार के दिन, पूर्वा फाल्गुणी स्थित सिंहलग्न में, जबकि बुध पानक्षत्र का, शनि मिथुन राशि का, मंगल धनु राशि का, राह तुला राशि का, सूर्य कर्क राशि का और वृहस्पति वृषराशि पर था तब यह उत्तरपुराण पूरा हुआ'यह ग्रन्थ समाप्ति की तिथि नहीं किन्तु उसका पूजा महोत्सव मनाया गया था। पर इस पद्य पर से यह ज्ञात नहीं होता कि गणभद्राचार्य उस समय जीवित थे। संभवत: उस समय उनका देव लोक हो चुका था। उस समय बंकापुर में प्रकाल वर्ष का सामन्त लोकादित्य वनवास देश पर शासन कर रहा था, जिसकी राजधानी बंकापुर थी। इनके पिता का नाम बकेय या बंकराज था। उसी के नाम पर उक्त नगर बसाया गया था। इसकी ध्वजा पर चोल का चिन्ह था। इनके पिता और भाई भी चेलध्वज थे। लोकसेन ने उन्हें जैनधर्म की वृद्धि करने वाला महान यशस्वी बतया है । चूकि लोक सेम ने अपनी प्रशस्ति शक सं.२० (सन् ८१८) में लिखी है, प्रत उनका समय ईसा को नवमी शताब्दी अन्तिम चरण है। श्रीवेव श्री देव कमलभद्र के शिष्य थे। इन्होंने सं० ६१६ आश्विन शुक्ला १४ वहस्पतिवार के दिन लग्छगिरी (देवगढ़) में स्तम्भ स्थापित किया । देवगढ़ का पुराना नाम लच्छगिरि है। जैन शिलालेख सं० भा०२ पृ० १५० स्वयम्भू कवि स्वयम्भू-का जन्म ब्राह्मण कुल में हुया था, परन्तु जैन धर्म पर प्रास्था हो जाने के कारण, उनकी उस पर पूरी निष्ठा एवं भक्ति थी। कवि के पिता का नाम मारुत देव और माता का नाम पद्मिनी था। कवि ने स्वयं १. पस्योतुग मतंगजा निजमद स्त्रोतस्विनी संगमाद। गाङ्ग वारि कलंकि तं कट मुहुः पीस्वाध्य गन्धतषः ॥२९ उ. पु०प्र० २. अकालवर्षभूगले पालयस्यखिलामिलाम् । ३. सबमति गुणभद्रः सर्वयोगीन्द्र वन्धः सकलकविवराणामनिमः सूरिचन्द्यः । जिन मदनविलासो विश्चलस्कोति मोत-रिततरुकुठारः सर्वभूपालयन्धः ।।४२ ४. शकन्टम कालाभ्यन्तरविशत्यधिकाष्टातमिताम्दान्ते । मंगलमहार्यकारिणि पिंगल नामनि समस्त जनसुखदे ।।३५ श्री पम्बम्या बुधायुिजि दिवसजे मन्त्रिवारे सुधांशे, पूर्वाश सिंहलग्ने धनुषि धरणिजे सैहिके ये तुलायाम् । सूर्य शुक्ले कुलोरे गविच सुरगुरी निष्ठित भम्पवयः । प्राप्तेज्यं सर्वसारं जगति विजयते पुण्यमेतत्तुराणम् ।।३६ --उ० पु०प्र० ५. देखो, उत्तरपुराण प्र. लो० ४, ५, ६ (३२ से ३४) ६. परमिणी गम संभूए, मारुय देव अणुराये । परमच०१ पृ. २
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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