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________________ १८८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ संख्यान रूपी समुद्र में से रत्न की तरह, पाषाण से कांचन की भांति अथवा शुक्तियों से मुक्ता फल की तरह सार निकाल कर अपनी शक्ति अनुसार गणित सार संग्रह को कहता हूं। जो लघु होते हुए अनल्पार्थक है । गणित सार संग्रह में चौबीस घंक तक की संख्या का उल्लेख करते हुए उनके नाम इस प्रकार दिये हैं, एक, दश, शत, सहस्र, दशसहस्र, लक्ष, दशलक्ष, कोटि, दशकोटि, शतकोटि, अर्बुद, खर्व, पद्म महापद्म, क्षणी, महाक्षोणी, शंख, महाशंख क्षिति, महाक्षिति, क्षोम, महाक्षोम । अंकों के लिये शब्दों का भी प्रयोग किया है, जैसे तोन के लिये रत्न, छह के लिये द्रव्य, सात के लिये तत्त्व, पन्नग और भय, आठ के लिये कर्म, तनु और मद, नो के लिये गो पदार्थ यादि । लघुत्तम समापवर्तक के विषय में अनुसन्धान करने वालों में महावीराचार्य विद्वानों में प्रथम गणितज्ञ थे, जिन्होंने लाघवार्थ निरुद्ध, लघुत्तम समापवर्तक की कल्पना की। महावीराचार्य ने निरुद की परिभाषा इस प्रकार की है- 'छेदों के महत्तम समापर्वक और उससे भाग देने पर प्राप्त लब्धियों का गुणनफल निरुद्ध कहलाता है । इस तरह यह ग्रंथ गणित की अनेक विशेषताओं को लिये हुए हैं। भारतीय गणितज्ञ विद्वानों ने उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है - डा० श्रववेशनारायण सिंह ने धवला टीका की भूमिका में लिखा है कि महावीराचार्य का गणितसार संग्रह ग्रंथ सामान्यरूप से ब्रह्म गुप्त श्रीधराचार्य, भास्कर तथा अन्य हिन्दू गणितज्ञों के ग्रंथों के समान होते हुए भी बहुत सी बातों में उनसे पूर्णतः श्रागे है । गणितसार में गुणवरील पूल, छिन्न, समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध भागमातृ जाति त्रैराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भाण्ड, प्रतिभाण्ड, व्यवहार, मिश्रक व्यवहार भाव्यकव्यवहार, एक पत्रीकरण, श्रेणीव्यवहार, खानव्यवहार, चितिव्यवहार, छाया व्यवहार श्रादि गणितों का विवेचन किया है। रेखागणित, बीजगणित, और पार्टी गणित की दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है । इस पर एक संस्कृत टीका भी उपलब्ध है । इनकी दो कृतियां और हैं ज्योतिर्ज्ञाननिधि, मौर जातक तिलक | गोविन्दराज की उत्तरभारत की विजय का काल सन् ८०६ से ८०८ तक सिद्ध होता हैं। जब वे सन् १४-१५ में सिंहासनारूढ़ हुए, तब उनकी अवस्था छह वर्ष की थी । और जब ८७७ के लगभग राज्य कार्य का परित्याग किया, तब उनकी आयु ७० वर्ष से कुछ कम ही जान पड़ती है। उस समय तक जिनसेनाचार्य और गुणभद्र का स्वर्गवास हो चुका होगा, इसी कारण उनकी प्रशस्तियों में अमोघवर्ष के मुनि जीवन का उल्लेख नहीं हो सका। इससे लगता है कि महावीराचार्य ने अपना गणितसार संग्रह दीक्षा लेने के उपरान्त मुनि जीवन के भीतर किसी समय रचा होगा। अतः महावीराचार्य का समय ईसवी सन् की हवीं सदी है । ग्रन्थ का नया एडीसन जीवराज प्रन्थमाला शोलापुर से प्रकाशित हो चुका है। अपराजित गुरु मूलसंघस्थ सेन संघ के मल्लवादि गुरु के प्रशिष्य और सुमति पूज्यपाद के शिष्य थे। इन्हें नवसारी जि० सूरत के नागसारिका जिनालय के लिये 'हिरण्य योगा' नाम का खेत दान में दिया था। इनका समय शक सं० ७४३ सन् ८२१ और वि० सं०८७८ है । क्योंकि इन्हें वह दान उक्त संवत् में प्राप्त हुआ था । - (एपिग्राफिया इंडिका जि० २१ पृ० १३३) (इण्डियन एण्टिक्वेरी वा० २१ पृ० १३३) I लोकसेन ( गुणभद्राचार्य के प्रमुख शिष्य ) Starrer के शिष्यों में प्रमुख शिष्य थे । लोक सेन की प्रशस्ति २६ वें पद्य से प्रारम्भ हो जाती है । उन्होंने गुरु को विनय रूप सहायता दे कर सजननों द्वारा बहुत मान्यता प्राप्त की थी। उस समय राष्ट्रकूट नरेश अकाल वर्ष पृथ्वी का पालन कर रहे थे। उनके पास हाथियों की बहुत बड़ी सेना थी, जिन्होंने अपने मद से गंगा के 1. Altekar, The Rashtra Kutas and their times P. 71-72 २. विदित सहज शास्त्रो लोकसेनो मुनीशः कविरविकल वृत्तस्तस्य शिष्येषु मुख्यः । सततमिह पुराणे प्रा साहाय्य मुच्चे - गुं सविनय मनीषीन्मान्यतां स्वस्थ सद्भिः ॥२८, उ० पु० प्र०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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