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________________ नवमी और दशवी शताब्दी के आचार्य महावीराचार्य (गणितसार के कर्ता) महावीराचार्य-राष्ट्रकट वंशी राजा अमोघवर्ग (प्रथम) के गमकालीन थे। उन्होंने अपने गणितसार के प्रारम्भ में नामोघवर्ष के दीक्षा लेकर सगस्वी बन जाने पर उनके सपस्मो जीवन का उल्लेख किया है। प्रथम पद्य में प्रमोघवर्ष को प्राणी रूपी सस्य समूह को सम्पूष्ट, निरं ति व निरवग्रह करने वाला और स्वेष्ट रितपो बतलाया है। यहां राजा के ईति निवारण और अनावृष्टिरूप विपत्ति के निवारण के साथ-साथ सब प्राणियों के प्रति अभय और राग-द्वेष रहित उपेक्षा वृत्ति का उहो। स्पेष्ट हितं निभायमसेसष्टईक हे आत्म कल्याण परायण हो गए थे। दूसरे पक्ष में उनके पापरूपी शत्रुओं का उनकी चित्तवृत्ति रूप सोज्वाला में अस्म होने का उल्लेख है। राजा अपने शत्रयों को क्रोधाग्नि में भस्म करता है, उन्होंने काम-कोधादि अन्तरंग शत्रुओं को कषाय रहित चित्तवत्ति से नष्ट कर दिया था । अतएव वे प्रवन्ध्य कोप हो गए थे। तीसरे पद में उनके समस्त जगत को वशीभूत करने, किन्तु स्वयं किसी के वशीभूत न होने से पूर्व मकरध्वज कहा है। जौरे पद्य में उनको एक चरिककाभंजन' पदवी की सार्थकता सिद्ध की है। राजमंडल को वश करने के अतिरिक्त यहां स्पष्टतः तपस्या वद्धि-द्वारा संसार चक्र परिभ्रमण का क्षय करने का उल्लेख है। पांचवें पद्य में उनकी विद्या प्राप्ति और मर्यादानों को वजवेदिका द्वारा उनकी ज्ञानवृद्धि और महाव्रतों के प्रतिपालन का उल्लेख अंकित किया गया है 'रत्न गर्म विशेषण से उनके दर्शन, ज्ञान योर चारित्र रूप रत्नत्रय का भाव प्रकट किया है। उनके 'यवाण्यात चारित्र के जलधि' विशेषण द्वारा उनके पूर्ण मुनि और उत्कृष्ट ध्यानी होने का स्पष्ट संकेत है। क्योंकि यथाख्यात चारित्र जैन सिद्धान्त को विशिष्ट संशा है, जो मुनि सकल चारित्र द्वारा भावविशुद्धि से कषायों को उपशमित या क्षोण कर देता है वह ययाख्यात चारित्र का धारी होता है । अन्तिम पत्र में उनके एकान्त को छोड़कर स्याद्वादन्याय का अवलम्बन लेने का स्पष्ट उल्लेख है । ऐसे नृपतुंग के शासन की वृद्धि की प्राशा की गई है। प्रोणितः प्राणिसस्यौधो निरीति निषग्रहः । श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वेष्टहित विणा ॥१ पापरूपाः परा यस्य चित्तवृत्तिहविर्भ जि । भस्मसाद्धावमीयस्तेऽवन्ध्यकोपोऽभवत्ततः ॥२ वशीकुर्वन् जगत्सर्च स्वयं नानु वाः परं । नाभिभूतः प्रभुस्तस्मादपूर्वमकरध्वजः ।।३ यो विक्रमकमाक्रांतचकिचक्रकृतक्रियः। चक्रिकाभजनो नाम्ना चक्रिका भजनोऽऊजसा ।।४ यो विद्यानद्यधिष्ठानों मर्यादाबनवेदिकः । रत्नगर्भो यथाख्यातचारित्रजलधिमहान् ॥५ विश्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवाजिनः । देवस्य नपतं गस्य वर्धतां तस्य शासनम् ॥६ महावीराचार्य ने अन्य के प्रारम्भ में गणित को प्रशंसा करते हुए लिखा है कि लोकिक, वैदिक, पौर सामायिक जो जो व्यापार हैं उन सब मैं गणित संख्यान का उपयोग है। काम शास्त्र, अर्थशास्त्र, गान्धर्व शास्त्र, नाटय शास्त्र, पाकशास्त्र, आयुर्वेदिक और वस्तु विद्या एवं छन्द अलंकार, काव्य तक व्याकरण यादि कलानों के समस्त गुणों में गणित अत्यन्त उपयोगी है। सूर्य प्रादि ग्रहों की गति को ज्ञात करने, ग्रहण में ग्रहों युति, प्रश्न अर्थात दिक देश काल को जानने तथा चन्द्रमा के परिलेख में, द्वोपों समुद्रों, और पर्वतों का संख्या, व्यास और परिधि पाताल लोक, मध्यलोक ज्योतिर्लोक, स्वर्ग नरक, श्रेणिबद्ध भवनों, सभाभवनों पीर गुम्दाकार मन्दिरों के प्रभाण गणित की सहायता से ही जाने जा सकते हैं। प्राणियों के संस्थान, उनकी आयु, यात्रा और संहिता आदि से सम्बन्ध रखने वाले सभी विषय गणित से ही ज्ञात होते हैं। अन्धकार ने लिखा है कि तीर्थकर और उनकी शिष्य प्रशिष्यादि की प्रसिद्ध गुरु परम्परा से आये हुए
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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