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________________ १८६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ४. मणि प्रकाशिका - चिन्तामणि को प्रकाशित करने वाली टीका, जिसके कर्ता अजितसेन हैं । ५. प्रक्रिया संग्रह- इसके कर्ता अभयचन्द्र हैं । ६. शाकटायन टीका - वादिपर्वतवत्र भावसेन श्रविद्यदेवकृत । इनकी एक कृति विश्व तत्त्व प्रकाश नाम की है यह ग्रंथ प्रकाशित हो चुका है। ७. रूपसिद्धि दयापाल मुनि कृत । यह द्रविड़ संघ के विद्वान थे। इनके गुरु का नाम मतिसागर था । 'ख्याते दृश्ये' सूत्र की जो श्रमोधवृत्ति दी है, उसमें निम्न उदाहरण दिया है- "प्रदहदमोघवर्षाऽरातीनअमोघवर्षं ने शत्रुओं को जला दिया। इस उदाहरण में ग्रन्थ कर्ता ने अमोघवर्ष ( प्रथम ) की अपने शत्रुनों पर विजय पाने की जिस घटना का उल्लेख किया है। ठीक उसी का जिक्र शक सं० ८३२ (वि० सं० ६६७ ) के एक राष्ट्रकूट शिलालेख में निम्न शब्दों में किया है- 'भूपालान् कण्टकाभान वेष्टयित्वा ददाह । इसका अर्थ भी वही है -प्रमोघ वर्ष ने उन कांटे जैसे राजानों को घेरा और जला दिया जो उससे एकाएक विरुद्ध हो गये थे । यद्यपि उक्त शिलालेख अमोघवर्ष के बहुत पीछे लिखा गया था, इस कारण परोक्षार्थं वाली 'ददाह' क्रिया दी है। यह उसके समक्ष की घटना है । इसमें • बाग्मुरा के दानपत्र' में जो शक सं० ७८६ (वि० सं० ६२४ ) का लिखा हुआ है इस घटनाका उल्लेख है— उसका सारांश यह है कि गुजरात के मालिक राजा एकाएक बिगड़कर खड़े हुए और उन्होंने धमोघवर्ष के विरुद्ध हथियार उठाये तब उसने उन पर चढ़ाई कर दी और उन्हें तहस-नहस कर डाला। इस युद्ध में ध्रुव घायल होकर मारा गया 1 अमोघवर्ष शक सं० ७३६ (वि० सं० ७७१) में सिंहासनारूत हुए थे । और यह दानपत्र शक सं० ८२४ ) का है । अतः सिद्ध है कि अमोधवृत्ति शक सं० ७३६ से ७८६ सन् १४ से ८६७ तक के मध्य किसी समय रची गई है । और यही समय पात्यकीर्ति या शाकटायन का है । उग्र वित्माचार्य उग्र बित्याचार्य श्रीनन्दी मुनि के शिष्य थे । उग्रदित्याचार्य ने इन्हीं से ज्ञान प्राप्त करके उन्हीं की श्राज्ञा से कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है। यह श्रीनन्दि मुनि के शिष्य थे। उग्रदित्याचार्य ने श्रीनन्दि से ज्ञान प्राप्त किया था। उग्रदित्याचार्य ने नृपतुङ्गवल्लभराज के दरवार में मांस भक्षण का समर्थन करने वाले विद्वानों के समक्ष मांस की निष्फलता को सिद्ध करने के लिए कल्याणकारक नाम के वैद्यक ग्रंथ की रचना की है। नृपतंग (अमोघवर्ष) राष्ट्रकूटवंश के राजा थे। उन्हीं के राज्यकाल के रामगिरि पर्वत के जिनालय में बैठकर ग्रन्थ बनाया था। ग्रंथ में दशरथ गुरु का भी उल्लेख है। जो वीरसेनाचार्य के शिष्य थे। इससे भी उग्रदित्याचार्य का समय 8 वीं शताब्दी का अन्तिम चरण जान पड़ता है । प्रशस्ति में उल्लिखित विष्णुराज परमेश्वर का कोई पता नहीं चलता। कि वे किस वंश के और कहां के राजा थे । ग्रन्थ में २५ अधिकार हैं- और श्लोक संख्या पांच हजार बतलाई जाती है । स्वास्थ्य संरक्षक, गर्भोत्पत्ति विचार, स्वास्थ्य रक्षाधिकार-सूत्रवर्णन, धन्यादि, गुण, गुणविचार, धन्नपान विधि वर्णन, रसायन विधि, व्याधि समुद्देश, यात व्याधि चिकित्सा, पित्तव्याधि-चिकित्सा, श्लेष्म व्याधि चिकित्सा, महाव्याधि चिकित्सा, क्षुद्ररोग चिकित्सा, बालग्रह भूतमन्त्राधिकार, सर्पविष चिकित्सा शास्त्रसंग्रह तंत्रयुक्ति कर्म चिकित्सा, भैषज्य कर्मापद्रव चिकित्सा, सर्वेष कर्म व्याप चिकित्सा, रसायन सिद्धाधिकार, नानाविध कल्पाधिकार | ग्रन्थ प्रायुर्वेद का है। जो सोला पुरसे प्रकाशित हो चुका है, पर वह इस समय मेरे सामने नहीं है चिकित्सा शास्त्र का अच्छा ग्रन्थ है । २. एपि ग्राफिमा डिक जिल्दा १५० ५४ ३. इण्डियन एण्टिक्वेरी जि १२ पृ० १८१ i 1 1
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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