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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
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निर्वाह करती है । किन्तु जहां कवि प्रकृति का चित्रण करने लगता है, वहां एक से एक अलंकृत संविधान का श्राश्रय कर ऊँती उड़ाने भरता है । गोदावरों की उपमा द्रष्टव्य है- गोदावरी नदो वसुधारूपो नायिका की बंकित फैनावली के वलय से अलंकृत दाहिनी बांह ही हो। जिसे उसने वक्षस्थल पर मुक्ताहार धारण करने वाले पति के गले में डाल रक्खा है ।
कवि की कुछ पंक्तियां वसुधा की रोम-राजि सदृश जान पड़ती हैं" ।
युद्ध में लक्ष्मण के शक्ति लगने पर अयोध्या के धन्तापुर में स्त्रियों का विलाप कितना करुण है 'दुःखातुर होकर सभी रोने लगे, मानों सर्वत्र शोक ही भर दिया हो । भृत्यजन हाथ उठा उठा कर रोने लगे, मानों कमलवन हिमवन से विक्षिप्त हो उठा हो । राम की माता सामान्य नारों के समान रोने लगी, सुन्दरी उर्मिला हतप्रभ हो रोने लगी, सुमित्रा व्याकुल हो उठी, रोती हुई सुमित्रा ने सभीजनों को रुला दिया कवि कहता है कि कारुण्य पूर्ण काव्यकथा से किस के प्रांसु नहीं प्रा जाते । भरत और राम का विलाप किसे विगलित नहीं करता । इसी तरह रावण की मृत्यु होने पर विभीषण और मन्दोदरी के विलासका वर्णन केवल पाठकों के नेत्रों को ही सिक्त नहीं करता, प्रत्युत रावण-मन्दोदरी और विभीषण के उदात्त भावों का स्मरण कराता है। इसी तरह अंजना सुन्दरी के वियोग में पवनंजय का विलाप चित्रण भी संसार को विचलित किये बिना नहीं रहता ।
ग्रन्थ में ऋतुओं का कथनतो नैसर्गिक ही है, किन्तु प्रकृति के सौन्दर्य का विवेचन भी अपूर्व हुआ है। नारी चित्रण में राष्ट्रकूट नारी का चित्रण बड़ा ही सुन्दर है ।
कवि ने राम और सीता के रूप में पुरुष और नारी का रमणीय तथा स्वाभाविक चित्रण किया है। पुरुष श्रीर नारी के सम्बन्धों का जैसा उदात्त और याथा तथ्य चित्रण सीता की अग्नि परीक्षा के समय हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है ग्रन्थ में सीता के अमित धैर्य, साहस और उदात्त गुणों का वर्णन नारी की महत्ता का द्योतक है, उसके सतीत्व को भाभा ने नारी के कलंक को धोदिया है।
ग्रन्थ का कथा भाग कितना चित्राकर्षक है, इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। सहस्रार्जुन की जल कीड़ा का वर्णन अद्वितीय है । युद्ध के वर्णन में भी कवि ने अपनी कुशलता का परिचय दिया है जिसे पढ़ते ही सैनिकों के प्रयाण की ध्वनि कानों में गूंजने लगती है और शब्द योजना तो उसके उत्साह की संवर्धक है ही ।
१. फेराव किय वलयालकिय,
महि वह अतरिया ।
जहि भत्तार हो मोतिय-हार हो, बाँह सारिय दाहिया ।" पउमचरिउ
२. "बविणाराविह रुक्खराई, णं महिकुर बहु अहिं रोम राई ।।" वही ।
३. "दुक्खा उ रोवइ सयलु लोड, गं चपिविचवि भरिउ सोउ ।
रोवइ भिच्च्य समुहहत्य, कमल-संड हिम-पव पत्यु || रोवइ अरा इव राम जारिश, केकय दाइक तक मूल-खारिए । रोवर सुप्प विच्छाप जाय, रोयइ सुमित सोमित्ति-माय || हा गुरु पुत्त केहि गओम, किसलिए बच्छ चलें ओसि । हा पुत्तु गरं तुम जो हसि वदवेण केण विच्छो ओसि । बत्ता-शे वंतिए लक्सर मारिए, सयल लोड रोवादि साइ कव्व कहाए जिह, कोवण असुमुआवियत्र ॥" ४.देखो र संधि ६७०१ ४, संधि ६६ १०-१२
।
पउमचरिउ, संधि ६६-- १३
५. देखो, पउमचरिउ ०६.४-११, ७६.२-३ ।
६. देखो. सभि १४,६
७ सिसा कोह के वि सुमित गुत्त, सुकलस-चत्त मोह ।