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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ से वे उनका उक्त परिचय दे सके हैं। वे जिनसेन से संभवतः ३०-४० वर्ष ज्येष्ठ रहे हों। इनका समय विक्रम की ८वीं शताब्दी का उपान्त्यभाग, तथा हवीं का पूर्वाधं होना चाहिए। क्योंकि कीर्तिपेण के शिष्य जिनसेन ने अपना हरिवंश पुराण शक सं०७०५ (वि.सं.८४० में समाप्त किया था। चूंकि अमितसेन और कोतिषण दोनों ही जयसेनाचार्य के शिष्य थे।
कोतिषण कोतिषण-यह पुन्नाट संघ के प्राचार्य जयसेन के शिष्य थे। और शतवर्ष जीवो अमितसेन गरु के ज्येष्ठ गुरुभाई थे। और महान तपस्वी और विद्वान थे। शान्त परिणामी थे। उग्र तपश्चरण से सब दिशाओं में इनकी कोति विश्रुत हो गई थी। इन्हीं के शिष्य हरिवंश पुराण के कर्ता जिनसेन थे। जिनसेनाचार्य ने अपना हरिवंश पुराण शक सं०७०५ (वि.सं.८४०) में समाप्त किया था। इनके समय की अवधि २०वर्ष को मान लें, तो इनका समय विक्रम की हवीं शताब्दीका पूर्वाध होगा
श्रीपाल देव यह पंचस्तूपान्वयी वीरसेन के शिष्य थे। बड़े भारी सैद्धान्तिक विद्वान थे। जिनसेनाचार्य ने आदि पुराण में श्रीपाल का स्मरण किया है साथ में भट्टाकलंक और पात्रकेसरी का। जिनसेन ने अपनी जयधवला टीका दही श्रीपाल द्वारा संपादित अथवा पोषक बतलाया है। इनका समय विक्रम की वो शताब्दी है। पयसेन और देवसेन भी इन्हीं के समय कालीन थे।
___ जिनसेनाचार्य (पुन्नासंघो) जिनसेना-प्रस्तुत पुन्नाट संघ के विद्वान प्राचार्य थे। इनके दादागुरु का नाम, जयसेन था, जो पखण्ड मर्यादा के धारक, षद खण्डागमरून सिद्धान्त के ज्ञाता, कर्म प्रकृति रूप अति के धारक, इन्द्रियों को वत्ति को जीतने वाले जयसेन गुरु थे। इनके शिष्य अमितसेन गुरु थे। जो प्रसिद्ध वैयाकरण, प्रभावशालो समस्त सिद्धान्त रूपी सागर के पारगामी, पुन्नाटगण के अग्रणी आचार्य थे। और जिनशासन के स्नेही, परमतपस्वी, तथा शतवर्ष जीवी थे। और शास्त्र दान द्वारा जिन्होंने पृथ्वी में वदान्यता-दानशीलता--प्रकट की थी। इनके अग्रज धर्म बन्ध 'कोतिषण मुनि थे। जो बहुत ही शान्त और बुद्धिमान थे। और जो अपनी तपोमयी कीति को समस्त दिशामों में प्रसारित कर रहे थे । इन्हीं कोतिषण के शिष्य प्रस्तुत जिनसेन थे । जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है :
"पखण्ड षट्खण्डमखण्डत स्थितिः समस्तसिद्धान्तमधत्तयोऽयं तः ।।२६ दधार कर्म प्रकृति च श्रुति च यो जिताक्षवृत्तिजयसेनसद्गुरुः । प्रसिद्ध याकरणप्रभाववानशेषशद्धान्तसमुद्रपारगः ॥३० तबीय शिष्यो ऽमितसेन सद्गुरुः पवित्र पुम्नाटगणापणी गणी। जिनेन्द्र सच्छासन वस्सलात्मना तपोभूता वर्षशताधि जीविना ॥३१ सुशास्त्र बानेन बदाम्यतामुना क्वात्यमत्येन भुवि प्रकाशिता । यवनजो धर्मसहोदरः शमी समग्रधीधर्म इवात्तविग्रहः ।। ३२ तपोमयों कीतिमशेष दिस यः क्षिपन् बभौ कीर्तित कोतिषणकः । तस्मशिष्येण शिवाप्रसौख्यभागरिष्टनेमोश्चरभक्तिभाविना ॥
स्वशक्ति भाजा जिनसेनसूरिणा धियाल्पयोक्ता हरिवंशपद्धतिः ॥३३॥ पून्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है। हरिषेण कथा कोश में लिखा है कि--भद्रबाहु स्वामो के निर्देशानसार १. तपोमयीं कीतिमशेषविक्षु यः क्षिपन्यमो कीर्तित कीतिषणकः ।
-हरिवंश० प्र० २. टीका श्री जय चिन्हितो ऽरुधवला सूत्रार्थ संद्योतिनी। स्थेया दारविचन्द्र मुज्ज्वलतपः श्रीपालसंपालिता ।। -जयधवल । पृ०४३
गुरु थ । जो प्रसिद्ध वैयाकरण
शन्द्रयों को वृत्ति
सा सागर के पारगामी, पुन्नाटगण के