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नवमी दसवीं शताब्दी के आचार्य
सिंहासन पर मारूढ हो राज्य संचालन कर रहे थे । जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है
अठतीसम्हि सतसए क्किम रायंकिए मु-सगणामे । वासे सुतेरसीए भाणु बिलागे धवल पक्खे ॥ ६॥ जगदेव-रज्जे रियम्हि कुंभ म्हि राहणा करणे । सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुल बिल्लए होते।। ७ ।। पावम्हि तरणिषुत्ते सिधे सुक्काम्म मीणे चंबम्मि । कत्तिय मासे एसा टीका हु समाणि या धवला ॥८॥
जयसेन जयसेन-बड़े तपस्वी, प्रशान्तमूर्ति, शास्त्रज्ञ और पण्डित जनों में अग्रणी थे । हरिवंश पुराण के कर्ता पुन्नाट संघी जिनसेन ने शत वर्ष जीवी अमितसेन के गुरु जयसेन का उल्लेखकिया है और उन्हें सद्गुरु, इन्द्रिय व्यापार विजयी, कर्मप्रकृतिरूप आगम के धारक, प्रसिद्ध वयाकरण, प्रभावशालो और सम्पूर्ण शास्त्र समुद्र के पारगामी बतलाया है २ जिससे वे महान योगी, तपस्वी और प्रभावशाली याचार्य जान पड़ते हैं। साथ ही कर्मप्रकृतिरूप आगमके धारक होने के कारण सम्भवत: बे किसी कर्मग्रन्थ के प्रणेता भी रहे हों तो कोई पाश्चर्य की बात नहीं है। परन्तु उनके द्वारा किसी ग्रन्थ के रचे जाने का कोई प्रामाणिक उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। इन उभय जिन सेनों द्वारा स्मृत प्रस्तुत जयसेन एकही व्यक्ति जान पड़ते हैं । हरिवंश पुराण के कर्ता ने जो अपनी गुरु परम्परा दी है उससे स्पष्ट है कि उनके शतवर्ष जीवी अमितसेन ३ और शिष्य कोतिषण का समय यदि २५–२५ वर्ष का मान लिया जाय जो बहुत ही कम है और हरिवंश के रचनाकाल शक सं०७०५ (वि. सं.60) से कम किया जाय तो शक सं. ६५५ विः सं० ७६० के लगभग जयसेन का समय हो सकता है । अर्थात् जयसेन विक्रमी की आठवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य थे।
अमितसेन अमितसेन-पुन्नाट संघ के अग्रणी प्राचार्य थे। यह कर्मप्रकृति श्रुति के धारक इन्द्रिय जयो जयसेनाचार्य के शिष्य थे। प्रसिद्ध वैयाकरण और प्रभाव शाली विद्वान थे। समस्त सिद्धान्तरूपी सागर के पारगामो ये । जैन शासन से बात्सल्य रखने वाले, परम तपस्वी थे। उन्होंने शास्त्र दान द्वारा पृथ्वी में वदान्यता-दानशीलता -प्रकट की थी। वे शतवर्ष जीवी थे। इन्होंने जैन शासन की बड़ी सेवा की थी। इस परिचय पर से उनकी महत्ता का सहजही बोध हो जाता है। जैसा कि हरिबंश पुराण के निम्न पद्यों से प्रकट है:
"प्रसिद्धयाकरणप्रभाववानशेषरावान्तसमुद्रपारगः ॥३० तबीय शिष्यो ऽमितसेन सदगुरः पवित्र पुन्नाट गणाग्रणी गणी। जिनेन्द्र सच्छासनवत्सलात्मना तपोभूता वर्षशताधि जीविना ।। ३१
सुशास्त्र वानेन बचान्यतामना वदान्य मूख्येन भुधिप्रकाशिता।" ऐसा जान पड़ता है कि संभवत: पुन्नाट देश के कारण इनका संघ भी पुन्नाट नाम से प्रसिद्ध हया है। यह उस संघ के विशिष्ट विद्वान थे । और वे अपने संघ के साथ आये हों। संभवतः जिनसेन उनसे परिचित हों, इसी
१. जन्मभूमि स्तपो लक्ष्म्याः श्रुतप्रपामयोनिधिः ।
जयसेन गुरुः पातु बुधबन्दाप्रपी: सनः ।। आदिपुराण १,५६ २. दधार कर्म प्रकृति र श्रुति व यो जिताक्षवृत्तिर्जयसेन सद्गुरुः ।
प्रसिद्धबयाकरणप्रभाववानशेषगद्धान्तसमुद्रपारगः ।। ३० ३. तदीय शिष्यो ऽमितमेन सद्गुरुः पवित्र पुत्लाद गणागी गणी।
जिनेन्द्रसमद्रासनवत्सलात्मना तपोभृता वर्ष शताधिजीविना ॥ ३१-हरिबंशपण