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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग
की दृष्टि से यह टीका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसमें वस्तुतत्त्व का ममं प्रश्नोत्तरां के साथ उद्घाटित किया गया है। और अनेक प्रचीन उद्धरणों द्वारा उसे पुष्ट किया गया है। जिससे पाठक षट् खण्डागम के रहस्य से सहज ही परिचित हो जाते हैं। आचार्य वीरसेन ने इस टीका में अनेक सांस्कृतिक उपकरणों का समावेश किया है। निमित्त, ज्योतिष और न्याय शास्त्र की अगणित सूक्ष्म बातों का यथा स्थान कथन किया है। टीका में दक्षिण प्रतिपति श्रीर उत्तर प्रतिपत्ति रूप दो मान्यताओं का भी उल्लेख किया है। टीका की प्राकृत भाषा प्रौढ़, मुहावरेदार और विषय के अनुसार संस्कृत की तर्क शैली से प्रभावित है । प्राकृत गद्य का निखरा हुम्रा स्वच्छ रूप वर्तमान है। सन्धि और समास का यथा स्थान प्रयोग हुआ है और दार्शनिक शैली में गम्भीर विषयों को प्रस्तुत किया गया है। टीका में केवल षट्खण्डागम के सूत्रों का ही नर्म उद्घाटित नहीं किया, किन्तु कर्म सिद्धान्त का भी विस्तृत विवेचन किया गया है । पौर प्रसंगवश दर्शन शास्त्र की मौलिक मान्यताओं का भी समावेश निहित है ।
लोक के स्वरूप विवेचन में नये दृष्टिकोण को स्थापित किया है। अपने समय तक प्रचलित वर्तुलाकार लोक की प्रमाण प्ररूपणा करके उस मान्यता का खण्डन किया है; क्योंकि इस प्रक्रिया से सात राजू घन प्रमाणक्षेत्र प्राप्त नहीं होता तब उसे भायतचतुरस्त्राकार होने की स्थापना को है और स्वयंभूरमण समुद्र की बाह्यवेदिका से परे भी असंख्यात योजन विस्तृत पृथ्वी का अस्तित्व सिद्ध किया है।
सम्यक्त्व के स्वरूप का विशेष विवेचन किया गया है। सम्यक्त्वोन्मुख जीव के परिणामों की बढ़ती हुई विशुद्धि और उसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का बन्धविच्छेद, सत्वविच्छेद मोर उदय विच्छेद का कथन किया है। और जीव के सम्यक्त्वोन्मुख होने पर बंधयोग्य कर्म प्रकृतियों का निरूपण किया है ।
प्राचार्य वीरसेन गणित शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे। इसीलिए उन्होंने वृत्त, व्यास, परिधि, सूचीव्यास, धन, श्रर्द्धच्छेद घातांक, वलय व्यास घोर चाप आदि गणित की अनेक प्रक्रियाओं का महत्वपूर्व विवेचन किया है। गणित शास्त्र की दृष्टि से यह टोका बड़ों महत्वपूर्ण है ।
उन्होंने ज्योतिष र निमित्त सम्बन्धा प्राचीन मान्यताओं का स्पष्ट विवेचन किया है। इसके प्रतिरिक्त नक्षत्रों के नाम, गुण, भाव, ऋतु, प्रयन ओर पक्ष आदि का विवेचन भो अ ंकित है। नय, निपेक्ष, और प्रमाण आदि की परिभाषाएं तथा दर्शन के सिद्धान्तों का विभिन्न दृष्टियों से कथन किया है।
टीका में अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का भी उल्लेख किया गया है। और अनेक प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरणों से टीका को पुष्ट किया गया है। इससे आचर्य वोरसेन के बहुश्रुत विद्वान होने के प्रमाण मिलते हैं।
सिद्धपद्धति टीका-भाचार्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण की प्रशस्ति में इस टीका का उल्लेख किया है और बतलाया है कि सिद्धभूपद्धति ग्रन्थ पद-पद पर विषम था, वह वोरसेन को टोका से भिक्षुग्रों के लिये अत्यन्त सुगम हो गया ।" यह ग्रन्थ मप्राप्य है ।
वीरसेन के जिनसेन के अतिरिक्त दशरथ और विनयसेन दो शिष्य और थे। और भी शिष्य होंगे, पर उनका परिचय या उल्लेख उपलब्ध नहीं होता ।
वीरसेन ने जयधवला टीका कषाय प्राभूत के प्रथम स्कन्ध को चार विभक्तियों पर बीस हजार श्लोक प्रमाण बनाई थी। उसी समय उनका स्वर्गवास हो गया । और उसका अवशिष्ट भाग उनके शिष्य जिनसेन ने पूरा किया।
रचना काल
माघार्य वीरसेन ने अपनी यह धवला टीका विक्रमांक शक ७३८ कार्तिक शुक्ला १३ सन् ८१६ बुधवार के दिन प्रातः काल में समाप्त की थी। उस समय जगतुंगदेव राज्य से रिक्त हो गये थे, और अमोघवर्ष प्रथम राज्य
१. सिद्धभूपतिर्यस्य टीकां संवीक्ष्य भिक्षुभिः । टोक्यते हेलयान्येषां विषमापि पदे पदे ।।
- उत्तरपुराण प्रश०