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________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य ने अपने को गणित, ज्योतिष, न्याय, व्याकरण मोर प्रमाण शास्त्रों में निपुण, तथा सिद्धान्त एवं छन्द शास्त्र का ज्ञाता बतलाया है । प्राचार्य जिनसेन ने उन्हें वादि मुख्य, लोकवित, बाग्मी, और कवि' के अतिरिक्त श्रुतकेवली के तुल्य बतलाया है और लिखा है कि --'उनकी सर्वार्थगामिनी प्रज्ञा को देख कर बुद्धिमानों को सर्वज्ञ को सत्ता में कोई शंका न ही रही थी। सिद्धान्त का उन्हें तलस्पर्शी पाण्डित्य प्राप्त था । सिद्धान्त-समुद्र के जल में धोई हई अपनी शुद्ध बुद्धि से वे प्रत्येक बुद्धों के साथ स्पर्धा करते थे। पून्नाट संघीय जिनसेन ने उन्हें कवियों का चक्रवर्ती और निर्दोष कीति वाला बतलाया है ५ । जिनसेन के शिष्य गुणभद्रने तमाम वादियों को प्रस्त करने वाला और उनके शरीर को ज्ञान और चारित्र की सामग्री से बना हुया कह है। इससे स्पष्ट है कि वीरसेन अपने समय के महान विद्वान थे । उन्होंने चित्रकूट में जाकर एलाचार्य से सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था। पश्चात् वे गुरु की अनुज्ञा प्राप्त कर वाट पाम आये, और वहां मानतेन्द्र द्वारा बनवाये हुए जिनालय में टहरे वहां उन्हें बप्पदेव की व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम की टीका प्राप्त हुई । इस टीका के अध्ययन से वीरसेन ने यह अनुभव किया कि इसमें सिद्धान्त के अनेक विषयों का विवेचन स्खलित है--छूट गया है और अनेक स्थलों पर सैद्धान्तिक विषयों का स्फोटन अपेक्षित है। छठे खण्ड पर कोई टीका नहीं लिखी गई । अतएव एक वृहत्टीका के निर्माण की प्रावश्यकता है । ऐसा विचार कर उन्होंने धवला और जय धवला टीका लिखो। दला दीना-गह पद प्रादागम नेमाटा पांच खण्डों की सबसे महत्वपूर्ण टीका है । टीका प्रमेय बहुल है। टोका होने पर भी यह एक स्वतत्र सिद्धान्त ग्रंथ है इसमें टीका की शैलीगत विशेषताएं है हो, पर विषय विवेचन ----------- . :-.--- .-. . .चन्द्रसेन और आर्यनन्दी नाम के दो आचार्यों का नामोल्लेख किया है, जो आचार्य वीरसेन के गुरु-गुरु थे। इन दोनों उल्लेखों से स्पष्ट है कि पंचस्तूपान्वय की परम्परा उस समय चल रही थी, और वह बहुत प्राचीन काल से प्रसार में आ रही थी। पंचस्तूपान्वय के संस्थापक अहंदवली थे, जिन्होंने युग प्रतिक्रमणों के समय पण नदी के किनारे विविधि संघों की स्थापना की थी। पंचस्तप णि काय के आचार्य गुहनन्दी का उल्लेख पहाड़पुर के ताम्रपत्र में पाया जाता है। जिसमें गुप्त संवत् १५६ सन् ४५८ में नाथ शर्मा ब्राह्मण के द्वारा गुहनन्दी के बिहार में अर्हन्तों की पूजा के लिए ग्रामों और अशफियों के देने का उल्लेख है । (एमिग्राफिया इंडिका ना २० पेज ५१) १. सिद्धान्त-छंद-जोइसु वायरण-प्रमाण सस्थणिउएण । -धवला प्रशस्ति २. लोकवित्वं कवित्व प स्थितं भट्टारके द्वयं । वारिमता वाग्मिनो यस्य बाचा वाचस्पत्तेरपि ॥ ५६ ---मादि पुराण ३. यस्य नैसर्गिककी प्रज्ञा पुष्टवा सर्वागामिनी । जाताः सर्वज्ञसम्दावे निरारेका मनीषिणः ।। --जय धवला प्र०२१ ४. प्रसिद्धसिद्धसिद्धान्तबाधिवाषर्षातशुद्धधीः । साई प्रत्येक बुखमः स्पर्धते घोदबुद्धिभिः ।। जयथ० प्र० २३ ५. जितात्मपरलोकस्य कबीनां चकबतिनः। वीरसेन गुरुः कीतिरकलका बभासते || ३९ हरिवंश प. ६. तत्रवित्रासित्ता शेष प्रवादि मदवारणः । वीरसेनाग्रणी घोरसेन भट्टारको बभौ ॥ ३ ज्ञानचारित्र सामग्री ममहीदिविग्रहम् ।। ४ ।। उत्तर पुराण प्र० ७. आगत्य चित्रकूटाप्ततः सभगवान्गुरोरनुज्ञानात् । वाटपामे चात्राऽनतेन्द्र कुत जिनगहे स्थिरवा ।। १७६ (इन्दनन्दि श्रुता .) ... -..- -- - - - - ..
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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