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नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्थं
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उनका समस्त संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के नेतृत्व में दक्षिणापथ के पुन्नाट देश में गया ।' प्रतएव दक्षिणापथ का यह पुनाट कर्णाटक ही है । कन्नड़ साहित्य में भी पुन्नाद राज्य के उल्लेख मिलते हैं। भूगोलवेत्ता टालेमी ने 'पोट' नाम से इसका उल्लेख किया है । इस देश के मुनि संघ का नाम 'पुन्नाट' संघ था । संघों के नाम प्रायः देशों और अन्य स्थानों के नामों से पड़े हैं
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श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १६४ में, जो शक संवत ६२२ के लगभग का है एक 'कित्तूर' नाम के संघका उल्लेख है । कित्तूर पुन्नाट की राजधानी थी, जो इस समय मंसूर के 'हैग्गडे वन्कोटे ताल्लुके में हैं ।
जिनसेनाचार्य की एक मात्रकृति 'हरिवंश पुराण है। इसमें हरिवंश की एक शाखा यादव कुल और उसमें उत्पन्न हुए दो शलाका पुरुषों का चरित्र विशेष रूप से वर्णित है। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ और दूसरे नव नारायण श्रीकृष्ण का ये दोनों परस्पर में चचेरे भाई थे। जिनमें से एक ने अपने विवाह के अवसर पर पशुओं की रक्षाका निमित्त पाकर सन्यास ले लिया था । और दूसरे में कौरवपाल कोश दिखलाया । एक ने प्राध्यात्मिक उत्क का प्रदर्श उपस्थित किया तो दूसरे ने भौतिक लीला का दृश्य । एक ने निवृत्ति परायण मार्ग को प्रशस्त किया तो दूसरे ने प्रवृत्ति को प्रश्रय दिया । इस तरह हरिवंशपुराण में महा भारत का कथानक सम्मिलित पाया जाता है ।
ग्रन्थका कथाभाग श्रत्यन्त रोचक है। भगवान नेमिनाथ के वैराग्य का वर्णन पढ़कर प्रत्येक मानवका हृदय सांसारिक मोह-ममता से विमुख हो जाता है। और राजुल या राजीमती के परित्याग पर पाठकों के नेत्रों से जहां सहानुभूति की अश्रुधारा प्रवाहित होती है वहां उसके आदर्श सतीत्व पर जन मानस में उसके प्रति अगाष श्रद्धा उत्पन्न होती है ।
आचार्य जिनसेन ने ग्रन्थ के छयासठ सर्गो में नेमिनाथ और कृष्ण के चरित के साथ प्रसंगवश धार्मिक सिद्धान्तों का सुन्दर वर्णन किया है। लोक का वर्णन मीर शलाका पुरुषों का चरित प्राचार्य यतिवृषम की तिलोय पणती से अनुप्राणित है । प्रसंगवंश कवि ने महाकाव्यों के विषय वर्णनानुसार ग्राम, नगर, देश, पत्तन, खेट, मंटब पर्वत, नदी अरण्य आदि के कथन के साथ शृंगारादि रसों और उपमादि अलकारों, ऋतु व्यावर्णनों, और सुन्दर सुभाषितों से भूषित किया है। रचना प्रौढ़, भाषा प्रांजल और प्रसादादि गुणों से अलंकृत है।
ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के आदि में अपने से पूर्ववर्ती अनेक विद्वानों का स्मरण किया है। कुछ विद्वानों की रचनाओं का भी उल्लेख किया है। जिन विद्वानों का स्मरण किया है उनके नाम इस प्रकार है:
(१) समन्तभद्र (२) सिद्धसेन (३) देवनन्दी, (४) वज्रसूरि (५) महासेन ( ६ ) रविषेण ( ७ ) जटासिंह नन्दि, (८) शान्तिषेण, (६) विशेषवादि (१०) कुमारसेन (११) वीरसेन, और १२ जिनसेन इन सब विद्वानों क परिचय यथास्थान दिया गया है, पाठक वहां देखें । इसी कारण उसे यहाँ नहीं लिखा ।
ग्रन्थकर्ता की प्रविच्छिन्न गुरुपरम्परा
हरिवंश पुराण के अन्तिम छयासठवें सर्ग में भगवान महावीर से लेकर लोहाचार्य तक की वही प्राचायं परम्परा दी है जो तिलोय पण्णत्ती घवला जयववला और श्रुतावतार आदि ग्रन्थों में मिलती है । ६२ वर्ष में तीन केवली गौतम गणधर, सुधर्म स्वामी और जम्बू, १०० वर्ष में पांच श्रुत केवली - विष्णु ( नदि), नन्दि मित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु, १८३ वर्ष में ग्यारह अंग दश पूर्व के पाठी- विशाल, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, सिद्धार्थ सेन, घृतिसेन, विजयसेन, बुद्धिल्ल गंगदेव, धर्मसेन – २२० वर्ष में पांच ग्यारह अंगधारी - नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस, और फिर ११८ वर्ष में- सुभद्र जयभद्र, यशोबाहु और लोहाचायें ये चार प्राचारांगधारी हुए। वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष बाद तक की श्रुताचार्य परम्परा के बाद निम्न परम्परा चलीविनयधर, तिगुप्त ऋषिगुप्त, शिवगुप्त, (जिन्होंने अपने गुणों से
यहंलि पद प्राप्त किया), मन्दराये
१. अनेन सह संचो ऽपि समस्तो गुरु वाक्यः । दक्षिणापथ देशस्थ पुन्नाट विषयं ययौ । हरिषेण कथा कोश