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जैनधर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
मित्रवीर्य, बलदेव, बलमित्र, सिंहवल, वीरवित, पद्मसेन, व्याघ्रहस्ति, नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपमेन धरसेन, धर्मसेन, सिंहसेन, नन्दिषेण, ईश्वरसेन, नन्दिषेण, प्रभयसेन सिद्धसेन अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन शान्तिषेण, जयसेन, अमितसेन (पुन्नाट गण के अगुवा और शतवर्ष जीवी) इनके बड़े गुरुभाई कीर्तिषेण, और उनके शिष्य जिनसेन थे ।
ग्रन्थ का रचना स्थल
हरिवंश पुराण की रचना का प्रारम्भ वर्द्धमानपुर में हुआ और समाप्ति दोस्तटिका के शान्तिनाथ जिनालय में हुई। यह वर्द्धमानपुर सौराष्ट्र का 'वढवाण' जान पड़ता है। क्योंकि उक्त पुराण ग्रन्थ की प्रशस्ति में बतलाई गई भौगोलिक स्थित से उक्त कल्पना को बल मिलता है ।
हरिवंश पुराण की प्रशस्ति के ५२ और ५३ वें श्लोक में बताया है कि शकसंवत् ७०५ में, जब कि उत्तर दिशा की इन्द्रायुध, दक्षिण दिशा की कृष्ण का पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व की अवन्तिराज वत्सराज और पश्चिम की सोरों के श्रधिमंडल सौराष्ट्र की वीर जयवराह रक्षा करता था। उस समय अनेक कल्याणों से अथवा सुवर्ण से बढ़ने बाली विपुल लक्ष्मी से सम्पन्न बर्धमानपुर के पाश्र्व जिनालय में जो नन्नराजवसति के नाम से प्रसिद्ध था. कर्कराज के इन्द्र, ब, कृष्ण और नन्तराज चार पुत्र थे। हरिवंश को नन्नराज वसति इन्हीं नन्नराज के नामसे होगी। यह ग्रन्थ पहले प्रारम्भ किया गया, पश्चात् दोस्तटिका की प्रजा के द्वारा उत्पादित प्रकृष्ट पूजा से युक्त वहां के शान्ति जिनेन्द्र शान्ति गृह में रचा गया ।
वढबाण से गिरि नगर को जाते हुए में
कान मिलता है। प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह ( गायकवाड सीरीज ) में श्रमलुकृत चर्चरिका प्रकाशित हुई है। उसमें एक यात्री की गिरनार यात्रा का वर्णन है। वह यात्री सर्वप्रथम वढवाण पहुंचता है, फिर क्रमसे रंन बुलाई, सहजिगपुर, गंगिलपुर पहुंचता है और लखमीषरु को छोड़कर फिर विषम दोतडि पहुँचकर बहुतसी नदियों और पहाड़ों को पार करता हुआ करि वंदियाल पहुंचता है । करिवंदियाल और अनन्तपुर में जाकर डेरा डालता है, बाद में भालण में विश्राम करता है, वहां से ऊँचा गिरनार पर्वत दिखने लगता है। यह विषम दोत ही दोस्तटि का है ।
वर्धमानपुर (बाण) को जिस प्रकार जिनसेनाचार्य ने अनेक कल्याणकों के कारण विपुलश्री से सम्पन्न लिखा है उसी प्रकार हरिषेण ने भी 'कथा कोश' में उसे 'कार्तस्वरापूर्णजिनाधिवास' लिखा है। कार्त्तस्वर श्रीर कल्याण दोनों ही स्वर्ण के वाचक हैं इससे सिद्ध होता है कि वह नगर अत्यधिक श्री सम्पन्न था, और उसकी समृद्धि जिनसेन से लेकर हरिषेण तक १४८ वर्ष के लम्बे अन्तराल में भी अक्षुण्ण बनी रही। हरिषेण ने अपने कथाकोश की रचना भी इसी वर्द्धमानपुर (बढवाण) में शक सं०८५३ (वि०सं० ६८८) में पूर्ण की थी ।
जिनसेन यद्यपि पुन्नाट (कर्नाटक) संघ के थे तो भी बिहार प्रिय होने से उनका सौराष्ट्र की ओर भागमन होना युक्ति सिद्ध है। सिद्धक्षेत्र गिरनार पर्वत की बन्दना के अभिप्राय से पुन्नाट संघ के मुनियों ने इस पोर विहार किया हो, यह कोई श्राश्चर्य की बात नहीं। जिनसेन ने अपनी गुरु परम्परा में श्रमित सेन को पुन्नागण के अग्रणी और शतवर्ष जीव लिखा है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह संघ अमितसेन के नेतृत्व में कर्नाटक से
१. शाकेन्द धतेयु रूपासु दिशं पज्योते रषूत्तरां, पातीन्द्रायुधनानि इष्टपजे श्री वलयभे दक्षिणाम् । पूर्वा श्रीमतिभूभृति नृपे वत्सादि राजे परा सौराणामधिमण्डलं जययुते चीरे वाराहे ज्वति ॥५२ कल्याणैः परिवर्धमानविपुलः श्रीवमाने पुरे श्री पालिय नम्मराजत्रसतो पर्याप्तशेषः पुरा । परवाड़ी स्वटिका प्रजाप्रजनित प्राज्याचं नावर्जन, शाः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम् ।। ५३