SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५वौं, १६वी, १७वीं और १५वीं शताब्दी के आचार्य, मदारक और कवि दम्पति ने मुनिराज द्वारा निर्दिष्ट कोइल पंचमी व्रत का विधि पूर्वक पालन किया। व्रत समाप्त होने पर उसका जज्ञापन किया। कालान्तर में वे भी सन्यास पूर्वक स्वर्गवासी हुए। इसमें जीव दया पालन करने का फल बतलाया गया है। इसी तरह अन्य सब कथाएं दी गई हैं । कथाएं अप्रकाशित हैं। बुध विजयसिंह कवि के पिता का नाम सेठ विल्हण और माता का नाम राजमती था। कवि का वंश पद्मावती पूरवाल या और यह मेरुपुर के निवासी थे। कवि ने अपने गुरु का नामोल्लेख नहीं किया। कविकी एकमात्र कृति 'अजित पुराण' उपलब्ध है जिसका रचना काल वि.सं.१५०५ कार्तिकी पूर्णिमा है। इससे कवि का समय सं० १४८५ से १५१५ तक समझना चाहिए। अजित नाथ पुराण इस ग्रन्थ में १० संधियां हैं, जिनमें जैनियों के दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जीवन परिचय अंकित किया गया है। रचना साधारण हैं, भाषा अपभ्रश होते हुए भी उसमें देशी शब्दों को बहुबलता है। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना महाभव्य पं. कामराय के पुत्र देवपाल की प्रेरणा से की है। ग्रन्थ को प्राद्यन्त प्रशस्ति में कामराय के परिवार का संक्षिप्त परिचय कराया है। और लिखा है कि वणिपुर या वणिक पुर नाम के नगर में खंडेल वाल वंश में कडि (कोडी) नाम के पंडित थे उनके पुत्र छीतु या छोतर थे, जो बड़े धर्मनिष्ठ और श्रावक की ११ प्रतिमानों का पालन करते थे। वहीं पर लोकमित्र पडित खेता थे, उनके प्रसिद्ध पुत्र कामराय थे। कामराय की पत्नी का नाम कमलधी था, उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। जिनका नाम जिनदास, रयणु और दिउपाल (देवपाल) था। उसने वहां वर्धमान का एक चैत्यालय बनवाया था, जो उत्तुगध्वजारों से अलंकृत था । और जिस में वर्धमानतीर्थकर को प्रशान्त मूर्ति विराजमान थी। उसी देवपाल ने यह चरित्र ग्रन्थ बनवाया था। कवि ने प्रथम सन्धि में जिनसेन, अकलंक, गुणभद्र, गडपिच्छ, पोढिल्ल (प्रोष्ठिल्ल) लक्ष्मण और श्रीधर कवि का नामोल्लेख किया है। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना.सं०१५०५ में कार्तिकी पूर्णिमा के दिन की है। समएह पणवह सएह पंचतह कत्तिय पुण्णिम वासरे। संसिद्ध गंयह विर्जासह कि वह दिउपालकयादरे ॥३२५ भट्टारक शुभचन्द्र यह मूलसंघ दिल्ली पट्ट के भट्टारक पद्मनन्दी के पधर शिष्य थे। यह पद्मनन्दी के पट्टपर कब प्रतिष्ठित हुए, इसका निचिय समय तो ज्ञात नहीं हो सका, पर वे संभवतः १४७० और १४७६ के लगभग किसी समय पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे। ग्वालियर लश्कर के नयामन्दिर के चौबीसी धातु की मूर्ति लेख में स० १४७६ में भ० शुभचन्द्र का उल्लेख है। अतः वे उससे पूर्व ही पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए जान पड़ते हैं। यह अपने समय के प्रच्छे विद्वान थे। इनकी दो कृतियां मेरे अवलोकन में आई हैं। 'सिद्ध चक्र कथा' और श्री शारदा स्तवन । शारदा स्तवन के वें पद्य में-'श्री पमनन्दीन्द्र मुनीन्द्र पट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवाः' वाक्य द्वारा उन्होंने अपना उल्लेख किया है। यह प्रतिष्ठाचार्य भी रहे हैं । इनके समय में ग्रन्थों की प्रतिलिपियां भी हुई हैं। इनके पट्टधर शिष्य जिनचन्द्र ये भ० शुभचन्द्र संभवतः १५०२ तक उस पट्ट पर प्रतिष्ठित रहे हैं। १. "तस्पट्टांबुधिः सञ्चन्द्रः शुभचन्द्रः सतांवरः । पंचाक्षात दावम्नि कषायामा धराशनिः । २०-मूलाचार प्रशस्ति तासु पट्टी रयणतय धारउ, संजावउ मुहचन्द भडारउ । सिद्ध चक्र कथा प्रशस्ति पुणु उवा सिंहासण मंडण, मिच्छाबाइ वाय-भड-खंडणु, साम चरिउ प्रक
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy