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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
ब्रह्म साधारण
यह मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वयी भ० परम्परा के विद्वान हरिभूषण शिष्य नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने अपनी गुरुपरम्परा का निम्न प्रकार उल्लेख किया है।
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सिरि कुन्दकुन्द गणि रयणकित्ति, पहसोम पोम णंदी सुदित । हरिण सीसरिकित्ति, विज्जानंदिय दंसण धरिति ॥ "
रत्नकीर्ति, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, हरिभूषण शिष्य नरेन्द्र कीर्ति और विद्यानन्द । कवि ने अपनी रचनाओं में रचनाकाल श्रीर रचना स्थल का कोई उल्लेख नहीं किया। कथा की यह प्रति वि० सं० १५०८ की लिखी हुई है' । इससे ग्रन्थ उक्त सं० १५०८ से पूर्व रचा गया है । कवि का समय १५ वीं शताब्दी है ।
इस कथा संग्रह में ८ कथाएँ और अनुप्रक्षा दी हुई हैं। कोकिला पंचमी, मुकुट सप्तमी, दुद्धारसिक था, आदित्यवीर कथा, तीन- चउवीसी कथा पुष्पांजलि कथा, निदुखेसत्तमी कथा, निर्भर पंचमी कथा और अनुप्रेक्षा । प्रत्येक रचना के अन्त में निम्न पुष्पिका वाक्य दिया हुआ
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'इति श्री नरेन्द्र कीर्ति शिष्य ब्रह्म साधारण कृता अनुप्रक्षा समाप्ता ।'
इन कथाओं में जैन सिद्धान्त के अनुसार व्रतों का विधान और उनके फल का विवेचन किया गया है। साथ ही व्रतों के आचरण का क्रम और तिथि आदि के उल्लेखों के साथ संक्षेप में उद्यापन विधि का उल्लेख किया है। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो दुगने वर्ष व्रत करने की प्रर्णा की है।
अन्तिम ग्रन्थ अनुप्रेक्षा में अनित्यादि द्वादश भावनाओं के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए संसार और देहभोगों की असारता का उल्लेख करते हुए आत्मा को वैराग्य की ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न किया गया 1
कोइल पंचवी कथा :
पाठकों की जानकारी के लिए 'कोइल पंचमी' कथा का सार नीचे दिया जाता है-भरत क्षेत्र के कुरु जांगल देश में स्थित रायपुर नामक नगर में वीरसेन नाम के राजा राज्य करते थे। उसी राज्य में धनपाल सेठ अपनी भार्या धनमति के साथ सुख पूर्वक रहते थे। उनका पुत्र धनभद्र और पुत्रवधू जिनमति थी। जिनमति कुशल गृहिणी जिनपूजा और दानादि में अभिरुचि रखने बली थी, परन्तु उसकी सासु धनमति को जैन धर्म से प्रेम नहीं था । दोनों के बीच यही एक खाई का कारण था ।
कालान्तर में धनपाल काल कवलित हो गया। कुछ समय वाद विषण्ण वन्दना धनमति भी चलवसी, श्रीर पापकर्म के कारण वह उसी घर में कोइल हुई । अतः दुर्भावशात् वह जिनमति के सिर में हमेशा टक्कर मारकर उसे दुःखित करती रहती थी ।
एक दिन उस नगर में श्रुतसागर नाम के मुनिराज प्राये वे अवधिज्ञानी थे। धनभद्र और जिनमति ने उन्हें आहार देकर उनसे कोइल की गतिविधियों के सन्दर्भ में पूँछा । तब मुनिराज ने बतलाया कि वह तुम्हारी जननी है। मुनियों के श्राहार दान में अन्तराय डालने के कारण वह कोइल हुई । पश्चात् मुनिराज ने संसार की घसारता का वर्णन किया, और बतलाया कि ५ वर्ष तक कोइल पंचमी व्रत का अनुष्ठान करो, भाषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष में उपवासकरो, व्रत पूरा होने पर कार्तिक के कृष्ण पक्ष में उसका उद्यापन करो, उद्यापन में पांच पांच वस्तुएँ जिन मन्दिर में दीजिए उद्यापन की शक्ति न हो तो दुगुने दिन व्रत करना चाहिए:
यह सुन कर कोइल पूछित हो गयी, जल सिंचन से उसे सचेत किया गया भनंतर धर्मोपदेश सुनकर कोइल ने सन्यास पूर्वक दिवंगत हुई ।
१. सं० १५०८ वर्षे श्री मूलसधै जिनचन्द्र देव खंडेलान्वये सावडा गोत्रे सा० पं० वीझा इयं कथानक ग्रन्थ लिखाप्य कर्मक्षय निमित्त प्रदत्त |