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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २८१ २१७ पद्यों में किया है। पूरे ग्रन्थ में २२ पद्य हैं यह ग्रन्थ वि० सं० १०५० में पौष सुदी पंचमी को समाप्त हया है। जब यह ग्रन्थ समाप्त हुना उस समय मुज राज्य करता था। कवि ने अपने सुभाषितों का उद्देश्य बतलाते हुए लिखा है कि जनयति मुवमन्तभव्यपाथों सहाणां, हरसि तिभिरतिया प्रभा मापनील। कृत निखिल पदार्थ द्योतना भारतीद्धा, विवरतु धुत दोषा संहितां भारती वः॥ जिस तरह सूर्य की किरणे अन्धकार का विनाशकर समस्त पदार्थों को प्रकाशित करती हैं और कमलों को विकसित करती हैं । उसी प्रकार ये सुभाषित चेतन-अचेतन-विषयक अज्ञान को दूर कर भव्यजनों के चित्त को प्रसन्न करते हैं। कवि ने ज्ञान का महत्व बतलाते हुए लिखा है कि ज्ञानं बिना नास्त्य हितान्मिवृत्तिस्ततः प्रवृत्ति न हिते जनानाम् । ततो न पूर्वाजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभतेऽध्यभीष्टम ॥ ज्ञान के बिना मानव को प्रहित स निवृत्ति नहीं होती, अहित की निवृत्ति न होने से हितकार्य में प्रवत्ति नहीं होती। हित कार्य में प्रवृत्ति न होने से पूर्वोपार्जित कर्म का विनाश नहीं होता और पूर्वोपाजित कर्मका विनाश न होने से अभीष्ट मोक्ष सुख की प्राप्ति नहीं होती। इसी तरह वृद्धावस्था का चित्रण करते हुए लिखा है कि जब मनुष्य जरा (बुढ़ापा) से ग्रस्त हो जाता है तब उसका सम्पूर्ण रूप नष्ट भ्रष्ट होने लगता है। बोलने में थूक गिरता है, चलने में पैर टेढ़े हो जाते हैं । बुद्धि अपना काम नहीं करती 1 पत्नी भी सेवा-शूथ्षा करना छोड़ देती है । और पुत्र भी आज्ञा नहीं मानता। इस तरह यह ग्रंथ सुन्दर सूक्तियों से विभूषित है । और कण्ठ करने योग्य है। धर्म परीक्षा-संस्कृत साहित्य में अपने ढंग की कृति है। इसमें पुराणों की ऊट-पटांग कथानों और मान्यताओं का मनोरंजक रूप में मजाक करते हुए उन्हें अविश्वासनीय बतलाया है। समूचा ग्रन्थ १९४५ श्लोकों में सुन्दर कथा के रूप में निबद्ध है । जिसे कवि ने दो महीने में बनाया था। हरिषेण को 'धर्म परीक्षा विक्रम संवत १०४४ में बनी है। हरिषेण ने लिखा है कि उससे पहले जयराम की गाथाबद्ध धर्म परीक्षा थी। उसे मैंने पद्धड़िया छन्द में किया है। बहुत संभव है कि इस पर हरिषेण की धर्म परीक्षा और हरिभद्र के धूर्ताख्यान का प्रभाव पड़ा हो । क्योंकि पात्रों के नामादि 'धर्मपरीक्षा के समान हैं। इस कारण वह इसका आधार रही हो । तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह ग्रन्थ विक्रम सं० १०७० में बनाकर समाप्त किया है । पंचसंग्रह-यह प्राकृत पंचसंग्रह का अनुवाद है। इस पर डड्ढा के पंचसंग्रह का प्रभाव है, वह अमितगति के सामने मौजद था। इसमें कर्मबन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता आदि का वर्णन है। इसकी रचना कवि ने -.- .- -.- - -..--- - ---- १ समारूने पून त्रिदशवसति विक्रमनपे, सहस्र वर्षाणां प्रभवतिहि पंचाशदधिके । समाप्ते पंचम्यामवति धरिणी मुंजनपतौ। सिने पक्षे पौने बुहितमिदं शास्त्रमनघम् सुभाषित रन सन्दोह प्रशस्ति ।। २ गलति सकलरूप लालां विमुञ्चति जलपनं, म्वलति गमनं दतानाशं श्रवन्ति शरीरिणः । विरमति मनिनों शुश्रूषां करोति च गेहिनी । वपि जरमा प्रस्ते वाक्यं तनोति न देहजः ॥२७॥ ३ अमितगतिरिने स्वस्थ मास द्वयेन । प्रथिन विशदकोतिः काव्य मुद्भुत दोषम् ।। ४ संवत्सराणां विगते सहस्त्र समप्ततो विक्रमार्थिवस्य । इदं निषिध्यान्यमत समाप्तं जैनेन्द्रधर्मामृतयुक्तिशास्त्रम् ॥
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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