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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अकलंकदेव प्रतिभा सम्पन्न महान् वादी, ग्रन्थकार और युगप्रवर्तक विद्वान् प्राचार्य थे। शिलालेखों में उनका गुणगान उनके निर्मल व्यक्तित्व का संद्योतक है। शिलावाक्यों में उन्हें तकभूवल्लभ, महधिक, समस्तबादि. करीन्द्र दर्पोभूलक, अकलङ्कधी, बौद्ध बुद्धि वैधव्यदीक्षागुरु, स्पाद्वादकेसरसटा शततीनमुर्तिपञ्चानन, अशेष कुतर्क विभ्रमतयो निर्मू लोन्मूलक, प्रकलङ्कभानु, अचिन्त्य महिमा, और सकल ताकिकचक चूडामणि मरीचि मेचकित नखकिरण आदि महान् विशेषणों से विभूषित किया है । यह जैन न्याय या दर्शन के उन प्रतिष्ठापक विद्वानों में से हैं। जिन्होंने दार्शनिक क्रान्ति के समय समन्तभद्र और सोन के दमन से प्राप्त किया चापागम की परिभाषानों को दार्शनिक रूप देकर अकलंक न्याय का प्रतिष्ठापन किया है। ये जैन दर्शन के तल दृष्टा पौर भारतीय दर्शनों के प्रकाण्ड पंडित थे। बौद्ध साहित्य म धर्मकोति' का जो महत्त्व है, दार्शनिक क्षेत्र में अकलंकदेव का उससे कम महत्व नहीं है। दार्शनिक युग में विभिन्न धर्म संस्थापकों ने अपने अपने धर्म का समद्योत किया है। बौद्ध विद्वान धर्मकीति, भट्ट कुमारिल्ल, प्रभाकर मिश्र, उमोतकर और व्योमशिव श्रादि दार्शनिक विद्वानों का लोक में जो विशिष्ट स्थान था, बही स्थान जैन सम्प्रदाय में अकलंक देव का था। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। इसी से अनेक कवियों ने अपने ग्रन्थों में उनका जयघोष किया है। अकलंकदेव का कोई पुरातन एवं प्रामाणिक जीवन-परिचय उपलब्ध नहीं है और न उनके समकालीन तथा प्रतिनिकट उत्तरवर्ती लेखकों के ग्रन्थों में अंकित मिलता है।
जीवन परिचय
मान्यखेट नगर के राजा शुभतुग के पुरुषोसम नाम का मंत्री था । उसके दो पुत्र थे-एक अकलंक और दसरा निकलक । एक बार अष्टान्हिका पर्व में माता-पिता के साथ वे दोनों भाई जैन गुरु रविगुप्त के पास गए। माता-पिता ने उक्त पर्व में ब्रह्मचर्ग व्रत लिया और अपने बालकों को भी दिलाया। जद वे युवा हुए तब अपने पराने ब्रह्मचर्य व्रत को यावज्जीवन व्रत मानकर उन्होंने विवाह नहीं करवाया। पिता ने समझाया कि वह प्रतिज्ञा तो पर्व के लिए थी। पर वे कुमार अपनी बात पर दृढ़ रहे और उन्होंने आजन्म ब्रह्मचारी रह कर अपना समय शास्त्राभ्यास में लगाया । अकलंक एक सन्धि और निकलंक द्वि सन्धि थे उनकी बुद्धि इतनी प्रखर थी कि अकलंक को एक बार सुनने मात्र से स्मरण हो जाता था और उसोपाठ को दो बार सुनने से निकलंक को स्मरण हो जाता था। उस समय जैन धर्म पर होने वाले बौद्धों के प्राक्षेपों से उनका पिस्त विचलित हो रहा था और वे इसके प्रतीकारार्थ बोट शास्त्रों का अध्ययन करने के लिये बाहर निकल पड़े। वे अपना धर्म छिपा कर एक बौद्धमठ में विद्याध्ययन करने लगे । एक दिन गुरु जी को दिग्नाग के अनेकान्त खण्डन के पूर्वपक्ष का कुछ पाठ अशुद्ध होने के कारण नहीं लग रहा था। उस दिन पाठ बन्द कर दिया गया। रात्रि को अकलंक ने वह पाठ शुद्ध कर दिया । दसरे दिन जब गुरु ने शुद्ध पाठ देखा तो उन्हें सन्देह हो गया कि कोई जैन यहां छिप कर पढ़ रहा है। इसी की खोज के सिलसिले में एक दिन गुरु ने जनमूर्ति को लाँघने की सब शिष्यों को प्राज्ञा दी। अकलंक देव मूर्ति पर एक धागा डाल कर उसे लांच गये पीर इस संकट से बच गये। एक रात्रि में गुरु ने अचानक कांसे के बर्तनों से भरे बोरे को छत से गिराया। सभी शिष्य उस भीषण आवाज से जाग गये और अपने इष्टदेव का स्मरण करने लगे। इस समय अकलंक के मुख से 'णमो प्ररहंताणं' प्रादि पंच नमस्कार मंत्र निकल पड़ा। बस फिर क्या था, दोनों भाई पकड़ लिये गये । दोनों भाई मठ की ऊपरी मंजिल में कैद कर दिये गये। तब दोनों भाई एक छाते की सहायता से कूद कर भाग निकले ज्ञात होने पर राजाज्ञा से उन्हें पकड़ने दो अश्वारोही सैनिक भेजे गये सैनिकों को प्राते देखकर छोटे भाई निकलंक ने बड़े भाई से प्रार्थना की कि आप एक सन्धि और महान विद्वान हैं। आपसे जिन शासन की महती प्रभावना होगी । अतः माप निकटवर्ती तालाब में छिप कर अपने प्राण बचाइये, शीघ्रता कीजिए, समय नहीं है। वे हत्यारे हमें पकड़ने के लिए शीघ्र ही पीछे पा रहे हैं। प्राखिर दुःखी चित्त से
१. यह परिचय ब्र नेमिदत्त के कथाकोश से लिया गया है।