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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताध्दी तक के आचार्य इससे स्पष्ट जाना जाता है कि काणभिक्षु ने किसी कथा ग्रन्थ अथवा पुराण की रचना की थी। खेद है कि वह अपूर्व ग्रन्थ इस समय अनुपलब्ध है। इनकी गुरु परम्परा भी अज्ञात है। इनका समय जिनसेनाचार्य से पूर्ववर्ती है, क्योंकि उन्होंने इनका स्मरण किया है। गंगराज के सहामात्य चामडराय ने भी अपने पुराण में इनका स्मरण किया है। काणभिक्षु कथा अन्य के कर्ता हैं। इनका समय वि. की दवों शताब्दी होना चाहिये । चउमुह (चतुर्मुस) ये अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। इनकी तीन कृतियां थीं, पउमचरिउ, रिद्रणेमिचरिउ और पंचमी परिउ । परन्तु खेद हैं कि उनमें से एक भी कृति उपलब्ध नहीं है । अपभ्रंश भाषा के कवि धवल ने अपने हरिवंश पुराण में, जो अभी अप्रकाशित है, चउमुह की 'हरि पाण्डवानां कथा' का उल्लेख किया है : हरिपंडुवांण कहा चउमुह-वासे हि भासियं जम्हा। तहविरयमि लोयपिया जेण ण णासेड सणं परं ।। इस पद्य में 'उमुह वासेहि' (चतुर्मखब्या) पद शिलस्ट है। पउमचरिउ के प्रारम्भ के चौथे पद्य में कहा है कि स्वयंभु की जलक्रीड़ा वर्णन में, और चतुंमुख देव को गोग्रह कथा वर्णन में आज भी कोई कवि नहीं पा सकता। हरिवंश में गो ग्रह कथा का वर्णन है ।' स्वयंभू छन्द में चउमुह के पद्य उदाहरण स्वरूप उद्धत है। उनमें से ४, २, ६, ८३, १९२ पद्यों से ज्ञात होता है; कि उनका पउमचरिउ भी उनके सामने रहा होगा। क्योंकि उसमें रामकथा के वर्णन का प्रसंग है। इसके अतिरिक्त हरिवंश श्रीर पंचमीचरिउवे दोनों कृतियां भी चउमुह को थौं। किन्तु वे अब उपलब्ध नहीं हैं। कवि का समय विक्रम की पाठवीं शताब्दी है। यह स्वयंभूदेव से पहले हए है । क्योंकि स्वयंभू और त्रिभुवन स्वयंभू ने उनकी रचना का उल्लेख किया है। हरिषेण (वि. सं. २०४४) अपनी धर्म परीक्षा में, और वीर कवि ने (१०७६) जम्बूस्वामी चरित में चउमुह का स्मरण किया है। अतः वे स्वयंभू, त्रिभुवन स्वयंभू आदि से पूर्ववर्ती हैं। उनका समय वही पाठवीं शताब्दी है, जिसका ऊपर निर्देश किया गया है। अकलदेव इस्थं समस्त मतवादि करीन्द्रवर्षमुन्मल यम्ममलमानबढ़प्रहारः। स्याद्वारकेसरसटाशततीवमूतिः पञ्चाननो जयत्यकलवेवः ।। -न्या० कु. पृ०६०४ मेनाशेषकुतर्क विभ्रमतमो निमलमुम्मीलितम, स्फारागाष कुनीति सार्य सरितो निःशेषतः शोषिताः। ल्यावावा प्रतिमप्रभूतकिरणः व्याप्तं जगत् सर्वतः, स श्रीमानकलङ्कभानुरसमो जोयाग्जिनेन्द्रःप्रभुः ।। -क्या० कु. पृ० ४७२ तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलङ्क धोः ।। जगद् द्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यवस्ययः॥ -वादिराज पा० च. १. पउमुह एव च गोगह कहाए । पजमचरिउ, स्वयम्भुदेव ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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