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पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
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अकलंक ने तालाब में छिपकर अपने प्राणों की रक्षा की । निकलंक लागे भागे। वहीं एक धोबी ने निकलंक को भागते देखा । वह भी पीछे पाते हुए घुड़सवारों को देख किसी अज्ञात भय की आशंका से निकलंक के साथ ही भागने लगा। घुड़सवारों ने पाकर दोनों को तलवार के घाट उतार कर अपनी रक्त पिपासा शान्त की।
"अकलंक वहां से चल कर कलिंग देश के रत्न संचयपुर में पहुंचे। वहाँ के राजा हिमशीतल की रानी मदन मुन्दरी ने अष्टान्हिका पर्व के दिनों में जैन रथ यात्रा निकलवाने का विचार किया। किन्तु बौद्धगुरु संघ श्री के बहकाने में आकर राजा ने रथ यात्रा निकालने की यह शतं रखी कि यदि कोई जैनगुरु बौद्ध गुरु को शास्त्रार्य में हरादे तब ही जैन रथ यात्रा निकल सकती है। इससे रानी बड़ी चिन्तित हुई और धर्म में विशेष रूप से संलग्न हुई । अकलंक देव वहां आये और राजा हिमशीतल की सभा में बौद्ध विद्वान से शास्त्रार्थ हुआ। संघश्री बीच में परदा डालकर उसके पीछे बैठकर शास्त्रार्थ करता था। शास्त्रार्थ करते हुए छह महीने बीत गये, पर किसी की हारजीत नहीं हो पाई। एक दिन रात्रि के समय चक्रेश्वरी देवी ने अकलंक को इसका रहस्य बताया कि परदे के पीछे घट में स्थापित तारादेवी शास्त्रार्थ करती है। तुम उससे प्रातःकाल कहे गये वाक्यों को दुबारा पूछना, इतने से ही उसकी पराजय हो जायेगी। अगले दिन अकलंक ने चक्रेश्वरी देवी की सम्मति के अनुसार प्रातः कहे गये वाक्यों को फिर दुहराने को कहा तो उत्तर नहीं मिला। उन्होंने तुरन्त प्रदा खींच कर घड़े को पैर की ठोकर से फोड़ डाला।' इससे जैनधर्म की विजय हुई और रानी के द्वारा संकल्पित रथयात्रा धूमधाम से निकाली गयी।"
उस समय जैन धर्म की महती प्रभावना हुई। जनता के हृदय में जैनधर्म के प्रति प्रास्था बढ़ी। पौर रानी का दृढ़ संकल्प पूरा हुआ।
कथा कोश में राजा शुभतुग की राजधानी मान्यखेट और अकलंक देव को उसके मन्त्री पुरुषोत्तम का पुत्र बतलाया है तथा राजा हिमशीतल की सभा में बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित करने का भी उल्लेख किया है। राष्ट्रकूट राजा कृष्धारा प्रथम की उपाधि भतुग' थी। उसका समर्थन शिलालेखों में उत्कीर्ण प्रशस्तियों से भी होता है । शुभतुग दन्तिदुर्ग के चाचा थे। युवावस्था में दन्तिदुर्ग की मृत्यु हो जाने के बाद वे राज्याधिरून हए थे। दन्तिदुर्ग का ही नाम साहसतुग था। इसने कांची, केरल, चोल और पाण्ड्य देश के राजाओं को तथा राजा हर्ष और बजट को जीतने वाली कर्णाटक की सेना को हराया था ।' कर्णाटक की सेना का अर्थ चालुक्यों की सेना से है । क्योंकि चालुक्य राज पुलकेशी द्वितीय ने बेष वंशी राजा हर्ष को जीता था।
भारत के प्राचीन राजवंश' ग्रन्थ में दन्तिदुर्ग की उपाधियों में 'साहस'ग' उपाधि का भी उल्लेख किया है।
___ डा० ए० वी० सालेतोर ने रामेश्वर मन्दिर के स्तम्भ लेख से सिद्ध किया है कि साहसतुग दन्तिदुर्ग का
१. मल्लिषेण प्रशस्ति के निम्न पद्म से भी राजा हिनशीतल की सभा में शास्त्रार्थ के समय घर फोड़ने की बात का समर्थन होता है :-मलिलषेण प्रशस्तिका का समय शक सं० १०५० (सन, ११२८) है।
"नाहङ्कारवगीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं,
रात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्य बुद्धया मया । राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो, बौद्धोधान् सकलान्विजित्य सुगत : (सघट:) पादेन विस्फोटितः ॥२३॥ २........."श्रीकृष्ण राजस्य शुभतुङ्ग तुगतुरग प्रबुद्ध रेवर्धक्रविकिरणम्"-ए००३ पृ० १०६ ३. कांचीश केरलनराधिपचोलपाणय- श्री हर्षवाट विभेद विधानवक्षम् । कराटकं बलमनन्तमजेपरण्यं मुंत्यः किहिमपि यः सहसा जिगाय ।।
-शामन गढ (कोल्हापुर) का शक सं० ६७५ का दानपत्र, इ० ए०भा०१ पृष्ठ १११ ४. देखो ए होल का शिलालेन । ५. भाग 3 पृ. 2६ ।