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________________ १५वी, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य भट्टारक और कवि न्याय दीपिका प्रापकी एकमात्र कृति 'न्यायदीपिका' है, जो अत्यन्त संक्षिप्त विशद और महत्त्वपूर्ण कृति है । यह जैन न्याय के प्रथम अभ्यासियों के लिये बहुत उपयोगी है । इसकी भाषा सुगम और सरल है। जिससे यह जल्दी ही विद्यार्थियों के कण्ठ का भूषण बनजाती है। श्वेताम्बरीथ विद्वान उपाध्याय यशोविजय जी ने इसके अनेक स्थलों को मानुपूर्वी के साथ अपना लिया है। इसमें संक्षेप में प्रमाण और नय का स्पष्ट विवेचन किया गया है। इसमें तीन प्रकाश या अध्याय हैं-प्रमालक्षण प्रकाश, प्रत्यक्ष प्रकाश और परोक्षप्रकाश । इनमें से प्रथम प्रकाश में उद्देशादि निर्देश के साथ प्रमाणसामान्य का लक्षण, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय का लक्षण, इन्द्रियादिको प्रमाण न हो सकने का वर्णन, स्वतः परत: प्रमाण का निरूपण, बौद्ध भाट्ट और प्रभाकर तथा नैयायिकों के प्रमाण लक्षणादि की आलोचना और मामा के सम्यगशालवामामा का निर्दोष लक्षण स्थिर किया है। दूसरे प्रकाश में प्रत्यक्ष का स्वरूप, लक्षण, भेद-प्रभेदादि का वर्णन करते हुए प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का समर्थन कर सर्वज्ञसिद्धि प्रादि का कथन किया है। तीसरे परोक्षप्रकाश में परोक्ष का लक्षण, उसके भेद-प्रभेद साध्य-साधनादिका लक्षण, हेतु के रूप मौर पंचरूप का निराकरण, अनुमान भेदों का कथन, हेत्वाभासों का वर्णन तथा अन्त में प्रागम और नय का कथन करते हए अनेकान्त तथा सप्तभंगी का संक्षेप में प्रतिपादन किया है। ग्रन्थ में ग्रन्थ कर्ता ने रचना काल नहीं दिया। फिर भी विजयनगर के द्वितीय शिलालेख के अनुसार इनका समय ईसा की १४वीं-१५वीं शताब्दी है। म० विद्यानन्दी मूलसंघ भारतीगच्छ और बलात्कार गण के कुन्दकुन्दान्वय में हुए थे। इन्होंने अपनी पट्ट परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है-प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, देवेन्द्रकीति और विद्यानन्दि । श्रीमूलसङ्घ वर भारतीये गच्छे बलात्कारगणेऽतिरम्ये।। श्रीफुन्दकुन्दास्य मुनीन्द्र पट्टे जातः प्रभाचन्द्र महामुनीन्द्रः ॥ ४७ पट्टे तदीये मुनिपपनन्दी भट्टारको भव्यसरोजभानुः । आतो जगत्त्रयहितो गुणरत्न सिन्धुः कुर्यात् सतां सार सुखं यतीशः ।४८ तत्पट्टपद्माकरभास्करोऽत्र देवेन्द्रकोतिर्मुनिचक्रवर्ती। तत्पाद पोज सुभक्तियुक्तो विद्यादिनन्दी चरितं चकार ॥४९ -सुदर्शन चरित प्रशस्ति इनके गुरु भट्टारक देवेन्द्रकीति थे, जो सूरत की गद्दी के पटटपर थे। भट्टारक पपनन्दी का समय सं०१३८५ से १४५० तक पाया जाता है। सम्भवतः सरत की पट्ट-शाखा का प्रारम्भ इन्हीं देबेन्द्रकीति ने किया है। इन्हीं के पट्ट शिष्य विद्यानन्दी थे। सूरत के सं० १४६६ के धातु प्रतिमा लेख से जो चौबीसी मूर्ति के पादपीठ पर अंकित है, उसकी प्रतिष्ठा विद्यानन्दी गुरु के आदेश से हुई थी। सं० १४६९ से १५२१ तक की मूर्तियों के लेखों से स्पष्ट है कि वे विद्यानन्दी गुरु के उपदेश से प्रतिष्ठित हुई हैं। विद्यानन्दी के गृहस्थ जीवन का कोई परिचय मेरे अवलोकन में नहीं पाया। सं० १५१३ के मूर्तिलेख से १.सं० १४६९ वर्षे शास्त्र सुदी १० बुधे श्री भूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छ मुनि देवेन्द्रकीति तस्थिव्य श्री विधर नन्दी देवा उपदेशात् श्री हवहवंश शाह खेता भार्या रूडी एतेषां मध्ये राजा भग्नी रानी श्रेया पतुर्विशत्तिका कारापिता। (सूरत, दा० मा०प०५५
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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