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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ समय धर्मकीति के अन्य प्रकरण अकलंक देव के प्रथम ग्रन्थ जान पड़ता है । यह अच्छे वैय्या १५० है फिर भी ऐसा जान पड़ता है जैसे तत्त्वार्थं बार्तिक की रचना के हों। इसी कारण यह ग्रन्थ उनका मन में करण भी थे। सूत्रों में शब्दों की सार्थकता तथा व्युत्पत्ति करने में उनके इस रूप के खूब दर्शन होते हैं । यद्यपि वे सर्वत्र पूज्यपाद के जैनेन्द्र व्याकरण का उद्धरण देते हैं। परन्तु पाणिनि और पतंजलि के भाष्य को भी भूले नहीं हैं। भूगोल और खगोल के विवेचन में तिलोय पण्णत्ती उनके सामने रही है। दोनों में कितना ही कथन समान मिलता है । वास्तव में यह भाष्य तत्त्वार्थ सूत्र की उपलब्ध टीकाओं में मूर्धन्य और आकर ग्रन्थ है। अकलंक देव की प्रशा के इसमें विशिष्ट दर्शन होते हैं । इस भाष्य में जनेतर ग्रन्थों के अनेक उद्धरण मिलने हैं। इससे उसकी महत्ता क सहज ही अनुभव हो जाता है । तत्त्वार्थसूत्र पर ऐसा ग्रन्य कोई दूसरा भाग्य उपलब्ध नहीं है प्रष्टशती यह श्राचार्य समन्तभद्र कृत 'आप्त मीमांसा' अपरनाम' 'देवागम स्तोत्र' की संक्षिप्त वृत्ति है। जैन दर्शन मीमांसा का विशिष्ट गौरवपूर्ण स्थान हैं। इसमें अनेकान्त और सप्तभंगी का अच्छा विवेचन है। इसका प्रमाण ८०० श्लोक जितना है इसी से इसे अष्टशती कहा जाता है । इस अष्टशती पर प्राचार्य विद्यानन्द की 'भ्रष्ट सहस्री' नाम की टीका है। जो सुवर्ण में मणिवत् आगे-पीछे के व्याख्या वाक्यों में अष्टशती को जड़ती चली जाती है। विद्यानन्द ने स्वयं अपनी उस अष्टशतः गर्भित अष्ट सहस्त्रों में लिखा है कि यह ग्रष्ट सहस्री कष्ट सहस्री से बनाई है। जैसा कि उनके वाक्य से स्पष्ट है 'श्रोतव्या भ्रष्ट सहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । इसमें मूल आप्तमीमांसा में श्राये हुए सदेकान्त असदेकान्त, भेदकान्त, अभेदेकान्त, नित्यैकान्त, क्षणिककान्त afe एकान्तों की आलोचना करते हुए पुण्य-पाप बन्ध की चर्चा को है। इन सब एकान्तों की मालोचना में भ्रष्टशती में उन उन एकान्तवादियों के मन्तव्य पूर्वपक्ष में साधार दिये है । श्रौर श्राज्ञा प्रधानियों के देवागम और प्राकाशगमन आदि के द्वारा ग्राप्त के महत्व ख्यापन की प्रणाली की आलोचना कर भाप्तमीमांसा के आधार से वीतराग सर्वज्ञ को प्राप्त सिद्ध किया है, और युक्ति से श्रागम अविरोधी वचन वाला बतलाया है। इसी कथन में श्रन्य आप्तों के एकान्तवाद की चर्चा भी निहित है । और अन्त में प्रमाण और नय की चर्चा की है । यस्त्रय सविवृति यह छोटे-छोटे तीन प्रकरणों का संग्रह है। इस ग्रन्थ में तीन प्रवेश हैं। प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश और प्रव वन प्रवेश | इसमें कुल ७८ मूल कारिकाएं हैं। अकलंक देव ने लघोस्त्रय पर एक विवृत्ति लिखी है। यह विवृत्ति कारिकाओं की व्याख्या रूप न होकर उसमें सूचित विषयों को पूरक है। उन्होंने यह विवृत्ति कारिकाओं के साथ ही लिखी है क्योंकि वे जो पदार्थ कहना चाहते हैं उसके अमुक ग्रंश को श्लोक में कहकर शेष को विवृत्ति में कहते हैं । अतः उसका नाम वृत्ति न होकर विवति विशेष विवरण ही उपयुक्त है। विषय की दृष्टि से पद्य और गद्य मिल कर ही ग्रन्थ की अखण्डता बनाते हैं । लघीस्त्रय में छह परिच्छेद हैं, जिनमें चर्चित मुख्य विषय निम्न प्रकार हैं। प्रथम परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान की प्रमाणता, प्रत्यक्ष परोक्ष के लक्षण, प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और मुख्य दो भेद, सांव्यवहारिक के इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद और मुख्य के अवग्रहादि भेद, पूर्व पूर्वज्ञानी की प्रमाणता आदि का विवेचन है । द्वितीय परिच्छेद में द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु की प्रमेयरूपता, नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्त में अर्थक्रिया का प्रभाव आदि प्रमेय सम्बन्धी चर्चा है । ततीयपरिच्छेद में मति स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध आदि का शब्द योजना से पूर्व अवस्था में, तथा शब्द योजना के बाद श्रुतव्यपदेश, स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमान का परोक्षत्व, प्रत्यभिज्ञान में उपमान
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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