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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ सातवाहन ने इस विजय के उपलक्ष्य में नहपान के सिक्कों को प्राप्त कर और उन पर अपने नाम की मुहर अंकित कर राज्य में चालू किया। वह उस समय वहाँ आया हुआ था। उसमें नहपान ने अपने मित्र मगध नरेश को मुनि रूप में देखकर और उनके उपदेश से प्रेरित हो अपने जगता समदत्त को राज्यभार सौंप कर अपने राज्य श्रेष्ठि सुबुद्धि के साथ मुनि दीक्षा ले ली। इन दोनों साधुओं ने संघ में रहकर तपश्चरण तथा आवश्यकादि क्रियानों के अतिरिक्त ध्यान प्रध्ययन द्वारा ज्ञान का अच्छा अर्जन किया, यह अत्यन्त बिनयी विद्वान और ग्रहण धारण में समर्थ थे । इन दोनों साधुपों को भाचार्य धरसेन के पास गिरि नगर भेजा गया था। प्राचार्य धरसेन ने इनकी परीक्षा कर महाकर्मप्रकृति प्राभूति पढ़ाया था। इनमें एक का नाम भूतबलि और दूसरे का नाम पुष्पदन्त रक्खा गया था। उनका दीक्षा नाम क्या था, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। नरवाहन या नहपान राजा भूतिबलि हुआ। और राजश्रेष्ठि सुबुद्धि पुष्पदन्त के नाम से ख्यात हुए। बिबुध श्रीपर के श्रुतावतार में इनका उल्लेख है। और नरवाहन को भूतबलि और सूबुद्धि सेठ को पुष्पदन्त बतलाया गया है। कुन्दकुन्दाचार्य भारतीय जन श्रमण परम्परा में मुनिपुंगव कुन्दकुन्दाचार्य का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है। वे उस परम्परा के प्रवर्तक पाचार्य नहीं थे। किन्तु उन्होंने माध्यात्मिक योग शक्ति का विकास कर अध्यात्मविद्या की उस अवच्छिन्न धारा को जन्म दिया था। जिसकी निष्ठा एवं अनुभूति प्रास्मानन्द की जनक थी और जिसके कारण भारतीय श्रमणपरम्परा का यश लोक में विश्रुत हुया था। श्रमण-कुल-कमल-दिवाकर प्राचार्य कुन्दकुन्द जैन संघ परम्परा के प्रधान विद्वान एवं महर्षि थे। वे बड़े भारी तपस्वी थे। क्षमाशील और जैनागम के रहस्य के विशिष्ट ज्ञाता थे। वे मुनि-युगव रत्नत्रय से विशिष्ट पौर संयम निष्ठ थे । उनकी पात्म-साधना कठोर होते हुए भी दुःख निवृत्ति रूप सुखमार्ग की निदर्शक थी। वे प्रहकार ममकार रूप कल्मष-भावना से रहित तो थे ही। साथ ही, उनका व्यक्तित्व असाधारण था। उनकी प्रशान्त एवं यथाजात मुद्रा तथा सौम्य प्राकृति देखने से परम शान्ति का अनुभव होता था। वे भारम-साधना में कभी प्रमादी नहीं होते थे। किन्तु मोक्षमार्ग की वे साक्षात् प्रतिमूर्ति थे । वास्तव में कुन्दकुन्द श्रमण-ऋषियों में मपणी थे। यही कारण है कि-'मंगलं भगवान वीरो' इत्यादि पब में निहित 'मंगलं कुन्दकुन्दार्यो' वाक्य के द्वारा मंगल कार्यों में पापका प्रतिदिन स्मरण किया जाता है। कुन्दकुन्द.का दीक्षा नाम पपनन्दीपा। वे कोण्डकुण्डपुर के निवासी थे। गुण्टकल रेलवे स्टेशन से दक्षिण की मोर लगभग पार मील पर कौण्ड कुण्डल नाम का स्थान है, जो अनन्तपुर जिले के गुटी तालुके में स्थित है। शिलालेख में उसका प्राचीन नाम 'कोण्डकुन्दे' मिलता है। यहाँ के निवासी इसे मान भी कोशकुन्दि कहते हैं । संभव हैकुम्बकुन्द का यही जन्म स्थान रहा हो । मतः उस स्थान के कारण उनको प्रसिद्धि कोयत्वाचार्य के नाम से हुई थी। जो गाव में कुन्दकुन्द इस अति मधुर नाम में परिणत हो गया था। मौर उनका संघ मूलसंप पौर 'कुम्बकुवाचार्य के नाम से लोक में प्रसिद्धि को प्राप्तामा और पाज भी वह उसी नाम से प्रचार में पा रहा है। १. तस्यान्वये भूपिदिते पमूव यः पानन्विप्रथमाभिवामः । श्रीकाशकुन्धादि मुनीश्वरस्परसंयमानुषगत बारादि। -जैन लेख सं. मा०११०२४ (क) श्री पचनन्दीत्यनबचनामा झाचार्य शाम्दोत्तरकोण्डकुन्दः ।। -जन लेख सं० प्रा० १ . ३४ २. देखो इंद्रनन्दि भुताचतार 1. जैनिज्म इन साउथ इंडिया
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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