SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६९ अर्हवली तपस्वी, विद्वान और निग्रह अनुग्रह करने में समर्थ प्राचार्य थे । उस समय पुण्ड्रवर्धन नगर के जैन श्रमण संघ नायक के रूप में प्रसिद्ध थे। उस समय संघ में अनेक विद्वान तस्वरे विद्यमान थे, जो ध्यान और अध्ययन आदि में तत्पर रहते थे । इनके समय तक मूल दिगम्बर परम्परा में प्रायः संघ-भेद प्रकट रूप में नहीं हुआ था। उस समय देश में स्थित वेण्णा नदी के किनारे बसे हुए वैष्णा नगर में पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमण के समय एक बड़ा यति सम्मेलन हुआ था, जिसमें सौ योजन तक के मुनि गण ससंघ सम्मिलित हुए थे। उस समय चन्द्रगुहा निवासी आचार्य धरसेन ने अपनी श्रायु अल्प जान ग्रन्थ- व्युच्छित्ति के भय से एक पत्र ब्रह्मचारी के हाथ उक्त सम्मेलन में जिसे पढ़कर आदर्श बली ने ग्रहण धारण में समर्थ दो मुनियों को धरसेनाचार्य के पास भेजा था जो प्रायणी पूर्व स्थित पंचम वस्तुगत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभृतज्ञ थे, और वृद्ध तपस्वी थे। अंग पूर्वो का एक देश ज्ञान उन्हें आचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ था। सम्भवत वली उन मुनियों के दीक्षा गुरु रहे हों 1 आचार्य धरसेन ने उन दोनों मुनियों को शुभ वार श्रीर शुभ नक्षत्र में ग्रन्थ का पढ़ाना प्रारम्भ किया था । विविध संघों की स्थापना आचार्य अर्हद्बली ने उक्त सम्मेलन में समागत साधुकों से पूछा आप सब लोग श्रा गये। तब उन्होंने कहा— हम अपने-अपने संघ सहित या गए। उन साधुओं की भावनाओं से पक्षपात एवं श्राग्रह की नोति जानकर, 'नन्दि', 'वीर', 'अपराजित', 'देव', 'पंचस्तूप', 'सेन', 'भद्र', 'गुणधर', 'गुप्त', 'सिंह' और 'चन्द्र' आदि नामों से भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये। जिससे उनमें एकता तथा अपनत्व की भावना, धर्मवात्सल्य और प्रभावना को अभिवृद्धि बनी रहे। इससे अली मुनि संघ प्रवर्तक, कहे जाते हैं। वे पंचाचार के स्वयं पालक थे । श्रहंली से पूर्व सम्भवतः संघों के विविध नाम नहीं थे। विविध संघों की स्थापना अंबली के समय से हुई है। उनसे पूर्व वह जैन निर्ग्रन्थ संघ के नाम से विधुत था । प्राकृत पट्टावली के अनुसार इनका समय वीर निर्वाण संवत् ५६५ ( वि० सं० १५ ) ईस्वी सन् ३८ हैं । और यह काल २८ वर्ष बतलाया है। यहाँ यह बात खास तौर से विचारणीय है कि प्राचार्य अर्हवली को धरसेन और गुणधर की गुरु परम्परा का ज्ञान न था, किन्तु उनके प्रति हृदय में बहुमान अवश्य था । सम्भव है, उनकी कृति 'कसायपाहूड' उस समय विद्यमान थी । इसीसे उन्होंने 'गुणघर' नाम का संघ भी कायम किया था। गुणधर का समय ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध जान पड़ता है । तिलोय पण्णत्ती और धवलादि ग्रन्थों में जो श्रुत परम्परा दी है, वह लोहार्य तक है। उनमें महंदु बलि, धरसेन, माधनन्दि और पुष्पदन्त भूतबली का उल्लेख नहीं है। इनके अनुसार इनका समय लोहार्य के बाद पड़ता है। १. सर्वाङ्ग देशक देशवित्पूर्व देश मध्यगते । श्री पुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोऽहंदुवत्याख्यः ॥ ८५ स चतत्प्रसारणा धारणा विशुद्धाति सत्कियो युक्तः । अष्टांग निमित्तज्ञः संधानुग्रह निग्रह समर्थ: ॥ ५६ आस्त संवत्सरपञ्चकावसाने युग प्रतिक्रमणम् । कुर्वन्योजनशतमात्रतमुनिजनसमाजस्य ॥ ८७ अथ सोऽयदा युगान्ते कुर्वन् भगवान्युगप्रतिक्रमणम् ।। मुनिजनवृन्दमपृच्छतिक सर्वेऽप्यागता यत ॥ ८८ - इन्द्रनदि श्रुतावतार २. क्योंकि श्रवणबेलगोल के शिलालेख १०५ में पुष्पदन्त और भूतजलि को स्पष्ट रूप से संभभेदको अवलो शिष्य कहा है । ४. इन्द्रनन्दिनावतार - ६१ श्लोक से ६६ श्लोक तक के पथ--- इन्द्रनन्दि श्रुतावतार | २. इन्द्रनदि श्रुतावतार
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy