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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ १०. दर्शन मोहोपशमना अधिकार- दर्शन मोहनीय कर्म जीव को अपने स्वरूप का दर्शन, साक्षात्कार या यथार्थ प्रतीति से रोकता है। अतः उसके उपनाम होने पर कुछ समय के लिये उसकी शक्ति के दब जाने पर जीव अपने वास्तविक ज्ञान-दर्शन स्वरूप का अनुभवता है जिससे ह नाली शामद की उपलब्धि होती है। इस प्रधिकार में दर्शनमोह को उपशम करने की प्रक्रिया वर्णित है।
११. वर्शनमोहक्षपणा अधिकार-दर्शनमोह का उपशम होने पर भी कुछ समय के पश्चात् उसका उदय माने से जीवात्मा ग्रात्मदर्शन से वंचित हो जाता है। प्रात्म साक्षात्कार सदा बना रहे, इसके लिये दर्शनमोह का क्षय करना मावश्यक है। दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्य ही कर सकता है किन्तु उसको पूर्णता चारों गतियों में हो सकती है । प्रस्तुत अधिकार में दर्शनमोह के क्षय करने की प्रक्रिया का वर्णन है।
१२. संयमासंयम लम्धि-अधिकार-आत्मस्वरूप के साक्षात्कार के पश्चात् जीव मिथ्यात्व रूपी कीचड़ से निकल आता है और विषय-वासना रूपी पंक में पुनः लिप्त न हो इस कारण देश संयम का पालन करने लगता है। इस अधिकार में देश संयम को प्राप्ति, सम्भावना और उसकी विघ्न-बाधामों का वर्णन किया गया है। प्रात्मशोधन के मार्ग में अग्रसर होने के लिए इस अधिकार की उपयोगिता अधिक है। संयमासंयमलब्धि के कारण हो जीव प्रतादि के धारण करने में समर्थ होता है।
१३. संचमलब्धि प्रधिकार-यात्मा की प्रवृत्ति हिंसा, असत्य, चौर्य, प्रब्रह्म और परिग्रह से हट कर अहिंसा, सत्य प्रादि प्रतों के अनुष्ठान में संलग्न हो सके। क्योंकि प्रात्मोत्थान का साधन संयम ही है। इसका विवेचन प्रस्तुत अधिकार में किया गया है।
१४. चारित्र मोहोपशमना अधिकार-इसमें चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम का विधान बतलाते हुए उपशम, संक्रमण और उदीरणादि भेद-प्रभेदों का कथन किया गया है।
१५. चारित्र मोहक्षपणा अधिकार-चारित्र मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियों का क्षय क्रम, क्षय की प्रक्रिया में होने वाले स्थितिबन्ध और सभी तत्त्वों का विवेचन किया गया है।
"इस कषाय पाहड पर प्राचार्य यतिबषभ ने छः हजार श्लोक प्रमाण चणिसूत्रों की रचना की। जो कषाय पाहुड सुत्त के साथ वीर शासन संघ कलकत्ता से प्रकाशित हो चुके हैं। इस ग्रन्थ पर और भी अनेक टीकाएं रही हैं, किन्तु वे इस समय उपलब्ध नहीं हैं ! हाँ, वीरसेन जिनसेन द्वारा लिखित जयधवला टीका प्राप्त है, जो पाक संवत् ७५६, सन् ८३७ में रची गई है और जिसका प्रकाशन भा० दि. जैन संघ मथुरा से हो रहा है । समय विचार
प्राचार्यप्रवर गुणघर में अपनी गुरु-परम्परा का कोई उल्लेख नहीं दिया और न ग्रन्थ का रचना-काल ही दिया है। अन्य किसी पट्टावली आदि से भी गणधर की गुरु-परम्परा का बोध नहीं होता। अर्हवली या गुप्तिगुप्त द्वारा स्थापित संघों में एक संघ का नाम गुणधर संध होने से गुणश्वर का समय अहंवली से पूर्ववर्ती है, क्योंकि महंबली को गुणधर की उस परम्परा का ज्ञान नहीं था। प्राकृत पट्टावली में अहंवली का समय वोर-निर्वाण संवत् ५६५ सन् ३८ है। घरसेनाचार्य तो महंबली के समसामयिक हैं, क्योंकि युग प्रतिक्रमण के समय दो सुयोग्य विद्वान् साधुनों को जो ग्रहण-धारण में समर्थ थे धरसेन के पास भेजा था। यदि अर्हबली को गुणधर की गुरुपरम्परा का ज्ञान होता तो वे अपने शिष्यों से उसका उल्लेख अवश्य करते । अधिक समय बीत जाने के कारण उनकी परम्परा का ज्ञान नहीं रहा, पर उनके प्रति बहुमान अवश्य रहा। किन्तु गुणधर की परम्परा को पर्याप्त यश मर्जन करने पर ही 'गुणघरसंघ' संज्ञा प्राप्त हुई होगी। यदि उस यश अर्जन का काल सौ वर्ष माना जाय तो गुणधर का समय ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दि सिद्ध होता है। बहबली--
इनका दूसरा नाम भूप्तिगुप्त भी था । ये अंग पूर्वी के एकदेशपाठी और आरातीय प्राचार्यों के बाद हए हैं। ये पूर्व देश में स्थित पुण्ड्रवर्धनपुर के निवासी, और अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता, संघ के
१. श्रीमानशेषनरनायकवन्दिताधि श्रीगुप्तिगुप्त इति बिधुत नामधेयाः ।।जन्दि संघ पट्टावली