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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
अनन्तवीर्य (वृद्ध)-- सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार एक वृद्ध अनन्तवीर्य हुए हैं। सिद्धिविनिश्चय टीका के पु० २७, ५७, १३५, ५३८) से ज्ञात होता है कि उनकी यह टीका रविभद्रपादोपजीवी अनंतवीर्य को प्राप्त थी, उन्होंने अपनी टीका में उसकी कुछ बातों का निरसन भी किया है। पर वे उससे प्रभावित नहीं थे, और संभवत: वह उन्हें विशेष रुचिकर भी न थी। इसी से उन्होंने अपनी टीका का निर्माण किया। इससे इतना तो निश्चित है कि यह अनन्तवीर्य उनसे पूर्ववर्ती हैं। संभवत: इनका समय वि० की हवीं शताब्दी का मध्यकाल हो सकता है।
अनन्तवीर्य इनका पेग्गर के कन्नड शिलालेख में वीरसेन सिद्धान्त देव के प्रशिष्य और गोणसेन पण्डित भट्टारक के शिष्य के रूप में उल्लेख है। ये श्री बेलगोल के निवासी थे। इन्हें बेहोरेगरे के राजा श्रीमत् रक्कस ने पेरगदूर तथा नई खाई का दान किया था। यह दान लेख शक सं० ८६ (ई. सन् १७७) का लिखा हुआ है। अतः इनका समय ईसा की दसवीं शताब्दी है ।
इन्द्रनन्दी प्रथम इनका उल्लेख ज्वाला मालिनी कल्प की प्रशस्ति महमदी (द्वितीय) ने किया है। इन्द्रादि देवों के द्वारा इनके चरण कमल पूजित थे। जिनमत रूपी जलधि (समुद्र) से पापलेप को धो डाला था। सिद्धान्त शास्त्र के ज्ञाता त्रिलोक रूपी कमल यन में विचरन करने वाले यशस्वी राजहंस थे। इनका समय विक्रम की दशवीं शताब्दी का पूर्वाध है।
बासवनन्दी यह इन्द्रनन्दी प्रथम के शिष्य थे। बडे भारी विद्वान थे। जिनका चरित्र पाप रूपी शत्रु सैन्य का हनन करने . के लिये तेज तलवार के समान था। और चित्तशरत्कालीन जल के समान स्वच्छ और शीतल था, जिनकी निर्मल कीर्ति शरत्कालीन घन्द्रमाकी चांदनी के समान प्रकाशमान थी। इनका समय भी विक्रम का दशवीं शताब्दी का मध्य भाग होना चाहिये।
१. श्री बेलगोलनिवासिमलप्प श्री दोरसेनसिद्धान्तदेवर वर शिष्ययर श्रीगोणसेनपण्डितभट्टारकवर शिष्य श्रीमन् अनन्तवीयंगले...
-जंन शिला० सं० भा० २ पृ० १६६ २. आसीदिन्द्रादिदेव स्तुतपदकमलश्रीन्द्र नंदिनीन्द्रो।
नित्योत्सप्पच्चरित्रो जिनमतजलविधौतपापोपलेपः । प्रज्ञानाचामलोद्यत्प्रगुणगणमतोरकीसां विस्तीर्ण सिद्धा
नाम्भोराशिस्त्रित्तोक्मांबुजवन विचरतसद्यशो राजहंसः ।। ३. वदवत्तं दुरितारिसैन्य हनने चण्डासिधारावितम् ।
चित्तं यस्य शरत्सरसलिलवत् स्वच्छं सदा शीतलम् । कोतिः शारदकौमुदी वाचिभूतो ज्योत्स्नेव यस्याऽमला । स श्री बासवनंदिसन्मुनिपतिः शिष्यस्तहोयो भवेत् ।।