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नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
प्रज्जज्जसेण गुणगण समूह संधारि श्रजियसेण गुरु । भुवणगुरु जस्स गुरु सो राम्रो गोम्मटो जयॐ ॥ ७३३ ॥
यह अजितसेन अपने समय के प्रसिद्ध प्राचार्य थे ।
चामुण्डराय का पुत्र जिनदेवन भी इनका शिष्य था । उसने सन् १९५ ई० में श्रवणबेलगोल में एक जिन मन्दिर बनवाया था । प्रस्तुत अजितसेनाचार्य प्रसिद्ध कवि रन्नके भी गुरु
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गंगवंशी राजा मारसिंह बड़े वीर और जिनधर्म भक्त थे । इन्होंने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के लिये गुर्जरदेश को विजय किया. विन्ध्यपर्वत की तली में रहने वाले किरातों के समूह को जीता, मान्यखेट में कृष्णराज की सेना की रक्षा की, इन्द्रराज चतुर्थ का अभिषेक कराया। और भी अनेक राजाओं को विजित किया। अनेक युद्ध जीते, और चेर, चोड, पाण्ड्य, पल्लव नरेशों को परास्त किया। जैन धर्म का पालन किया । अनेक जिनमन्दिर बनवाये सौर मन्दिरों को दान दिया। मारसिंह ने ९६१ ई० से ६७४ ई० तक राज्य किया है। इनके धर्म महाराजाधिराज, गंगचूड़ामणि, गंगविद्याधर, गंगकन्दर्प और गंगवा यादि विरूद पाये जाते हैं। और अन्त में राज्य का परित्याग कर अजितसेन गुरु के समीप सन् १७४ ई० में बंकापुर में समाधि पूर्वक शरीर का परित्याग किया ।
प्रजित सेनाचार्य का समय ई० सन् ६६० (वि० सं० १०१७ ) है । प्रजितसेन के शिष्य कनकसेन द्वितीय थे ।
नागनदी
सूरस्थ गण के मुनि श्रीनन्दि भट्टारक के प्रशिष्य और विनयनन्दि सिद्धान्त भट्टारक के शिष्य थे । इनके पाद प्रक्षालन पूर्वक कुक्कनूर ३० में स्थित अपनी जागीर से ३०० मन्तर प्रमाण कृष्य भूमि, कोपण में यादव वंश में समुत्पन्न महा सामन्त शङ्कर गण्डरस द्वारा निर्माणित जयबीर जिनालय को नित्य प्रति की प्रावश्यकताओं की पूर्ति के लिये दाम में दी गई थी। यह लेख अकाल वर्ष कन्नरदेव ( राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय) के राज्य में रक्ताक्षि संवत्सर एवं शक संवत् ८८७ सन् ९६४ ईस्वी में लिखा गया था। इससे नागनन्दी का समय सन् १६४ है । — जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० ४२९
गोल्लाचार्य
थे।
मूल संघान्तर्गत नन्दिगण से प्रसूत देशीयगण के प्रसिद्ध श्राचार्य थे, और गोल्लाचार्यं नाम से ख्यात थे। यह गृहस्थ अवस्था में पहले गोल्लदेश के अधिपति (राजा) थे और नूलचन्दिल नाम के राजवंश में उत्पन्न हुए उन्होंने किसी कारणवश संसार से भयभीत हो, राज्य का परित्याग कर जिनदीक्षा ले ली थी। और तपश्चरण द्वारा ग्रात्म-साधना में तत्पर थे। वे श्रमण अवस्था में अच्छे तपस्वी, और शुद्धरत्नत्रय के धारक थे । सिद्धान्तशास्त्ररूपी समुद्र की तरंगों के समूह से जिन्होंने पापों को धो डाला था। इनके शिष्य त्रैकाल्य योगी थे। इनका समय संभवतः दशवीं शताब्दी है ।
१. इत्याद्य द्ध मुनीन्द्रसन्ततिनिधी श्रीमूलसड्ये ततो । जाते नन्दिगरण-प्रभेदविलसदेशीर विश्रुते । गोल्लावार्य इति प्रसिद्ध मुनिपोऽभूद् गोल्ल देशाधिप: 1 पूर्व केन च हेतुना भवभिया दीक्षां गृहीतस्सुधी ।
-- जैनलेखसंग्रह भा० १ ० नं० ४० पृ० २५