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________________ २३८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ राज वाणस वंश के तथा केतलदेवी के आफिसर थे। उन्होंने शांतिनाथ, पार्श्वनाथ तथा सुपाश्वनाथ की प्रतिमा बनवाई थीं, और पान्नवाड़ वर्तमान होग्याड में त्रिभुवन तिलया नामक चैत्यालय बनवाया।' और उसके लिए कुछ जमीन तथा मकानात् शक स०६७६ सन् १०५४ म दान दिया था। अतः श्राम लेन ना समय सन् १०२६ के लगभग होना चाहिये। -जैन शिलालेख भा०२ पृ. २२ आर्यनन्दी कवि प्रसग ने, जो नागनन्दी का शिष्य था । उसने आर्यनन्दी गुरु को प्रेरणा से वर्धमान पुराण की रचना की थी। कवि ने इसे सं० ६१० में बनाकर समाप्त किया था। कवि दामि जिनाप्य नाम का एक ब्राह्मण विद्वान था । वह पक्षपात रहित, जिनधर्म में अनुरक्त, यहादूर और परलोक भीरू था, उसको ध्याख्यान शीलता और पुण्य श्रद्धा को देखकर उकसा ग्रन्थ की चाकी सायंन्दि नाममा समय विक्रम को १० वीं शताब्दी का प्रारम्भ है। जयसेन यह लाड वागडसंघ के पूर्णचन्द्र थे। शास्त्र समूः क पारगानी और तम के निवारा थे। तथा स्त्री के कलारूपी बाणों से नहीं भिदे थे-पूर्ण ब्रह्मचर्य से प्रतिष्ठित थे। जैसा कि प्रद्युम्नचरित की प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है : श्रीलाटवर्गट नभस्तल पूर्णचन्द्र शास्त्रार्णवान्तग सधी तपसां निवासः । कारता कलावपिन यस्म शरबिभिन्न स्वान्तं बखूब स भुनिजंयसेन नामा ॥ इनके शिष्य गुणाकरसेन सूरि थे और प्रशिष्य महासेन, जो मुज नरेश द्वारा पूजित थे। इन जयसेन का का समय विक्रम की दशवीं शताब्दी है। कनकसेन कनकसेन सेनान्वय मूलसंघ पोगरोगण के सिद्धान्त भट्टारक विनयसेन के शिष्य थे। शक सं०८१५ (सन ८६२ ई०) में निधियण और चेदियण्ण नाम के दो वणिक पुत्रों ने (Sons of a merchant from Srimangal ने नगरू (धर्मपुरी) में एक जिनमंदिर बनवाया। इनमें से पहले को राजा से 'मूलपल्लि' नाम का गांव दान में मिला। जिसे उसने कनकसेन भट्टारक को मन्दिर की सुव्यवस्था के लिये प्रदान किया। (जैन लेख सं० भा० ४ पृ० ३६) अजितसेनाचार्य आचार्य अजितसेन मार्यसेन के शिष्य थे। बड़े भारी विद्वान और तत्त्व चिन्तक थे । मूलगुण्ड के सन् १०५३ ई. के एक शिला लेख में अजितसेन भट्टारक को 'चन्द्रिकावाटान्वयवरिष्ठ' बतलाया है। यह राजाओं से सम्मानित थे । गंगवंशी राजा मारसिंह और राचमल्ल के गुरु थे। और इनके मंत्री एवं सेनापति चामुण्डराय के भी गुरु थे। इसी से गोम्मटसार के कर्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उन्हें ऋद्धि प्राप्त गणधर देदादि के समान गुणी और भुवन गुरु बतलाया है। जैसाकि उसकी निम्न माथा से प्रकट है : १. सन्निमितं भुवन दुम्भुकमत्युदात्त, लोक-प्रतिद्धविभ-बोन्नतपोन्तवा । ररम्यते परमशान्तिजिनेन्द्रगेह, पाइनद्वयानुमतपार्श्वमुपायासम् ।। महासेन मुनेच्छात्र, चारािजेन निर्मितं । द्रष्टु कामाचसहारि शान्तिनाथस्थ बिम्बकम् ।। -जन शि० ले० सं० पृ० २२६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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