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नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
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पंक्तियाँ और ३७ श्लोक हैं । अन्तिम पंक्ति छोटी है जो बाद में जोड़ी गई है। यह लेख श्रमं संस्कृति और काव्य की दृष्टि से बड़े महत्व का है। और उपयोगी है। इस प्रशस्ति लेख के लेखक रविकीर्ति हैं, जो संस्कृत भाषा के मच्छे विद्वान और कवि थे। वे काव्य योजना में प्रवीण और प्रतिभाशाली थे। उन्होंने कविता के क्षेत्र में कालिदास और भारवि की कीर्ति प्राप्त की थी।" इस लेख से हमें केवल रवि कीर्ति की प्रतिभा का ही परिचय नहीं मिलता किन्तु उक्त दोनों कवियों के काल की अन्तिम सीमा भी सुनिश्चित हो जाती है। यह लेख शक सं० ५५६ (सन् ६३४ ई०) सातवीं शताब्दी के दक्षिण भारत के राजनैतिक इतिहास पर अच्छा प्रकाश डालता है। रविकोर्ति चालुक्य पुलकेशी सत्याश्रय ( पश्चिमी चालुक्य पुलकेशा द्वितीय) के राज्य में थे। यह राजा उनका संरक्षक या पोषक था। पुलकेशी स्वयं सुरवीर, रण कुशल योद्धा था, प्रशस्ति में उनके पराक्रम, युद्ध संचालन, साहस और सैनिकों को गतिविधियों का इतना सुन्दर और व्यवस्थित वर्णन दिया है जो देखते ही बनता है। मंगलेश अपने भाई के पुत्र पुलकेशी से ईर्षा करता था -- उसकी कीर्ति से जलता था और अपने पुत्र को राजा बनाना चाहता था। पर नहुष के समान प्रतापी पुलकेशी के सामने उसकी शक्ति कुठित हो गई वह काम न ग्रा सकी, और राज्यलक्ष्मी ने पुलकेशी को वरण किया।
पुलकेशी ने प्राप्यायिक, गोविन्द, गंग, अनूप, मौर्य, लाट, मालव, गुर्जर, कलिंग, कोसल, पल्लव, बोल, निन्यानबे हजार गांव वाले महाराष्ट्र, पिष्टपुर का दुर्ग, कुडी, बनवासी और पश्चिम समुद्र की पूरी को जीत लिया था । और राजा हर्षवर्द्धन को रोक कर नर्मदा के किनारे अपना सैनिक केन्द्र स्थापित किया था ।
प्रशस्ति में पुलकेशी के प्रताप और तेज का बहुत सुन्दर वर्णन दिया है और बतलाया है कि पुलकेशी ने अपनी सेना के कारण पल्लव राजाओं को इतना श्रातंकित और भयभीत कर दिया था, जिससे वे अपनी राजधानी की चहार दीवारी के भीतर ही निवास करते थे- बाहर निकलने का उनका साहस नहीं होता था । चोल देश पर विजय प्राप्त करने के लिये उसने कावेरी नदी पार की तथा दक्षिण भारत के अन्य प्रदेशों को अपने आश्रित किया। रवि कीर्ति का समय शक सं० ५५६ ( सन् ६३४) सातवीं शताब्दी है ।
चन्द्रदेवाचार्य
चन्द्रदेव नन्दि राज्य के यशस्वी, प्रभावयुक्त, शील-सदाचार-सम्पन्न आचार्य कल्वप्प नामक ऋषि पर्वत पर व्रतपाल दिवंगत हुए थे। यद्यपि यह लेख काल रहित है। इसमें सम्वत् का उल्लेख नहीं है फिर भी इसे लगभग शक सं० ६२२ का माना जाता है । जो सन् ७०० होता है । इनका समय विक्रम को 5वीं शताब्दी होना चाहिए। – जैन लेख सं० भा० १ पृ० १४ ले० ३४ (६४) दूसरे चन्द्रदेव को कल्याणी के प्रसिद्ध रावंश राजामल्लिकार्जुन ने शक सं० ११२७ रक्ताक्षि गंवत्सर द्वितीय पौष सुदि बुधवार मकर संक्रान्ति के दिन उक्त गुरु चन्द्रदेव भट को जलधारा पूर्वक दान दिया गया था। इनका समय सन् १२०५ ई० है ।
( जैन लेख सं० भा ३ पृ० २६४ )
श्रार्यसेन
मूलसंघ वरसेनगण और पोगरि गच्छ के विद्वान आचार्य थे। और ब्रह्मसेन व्रतिप के शिष्य थे। जो अनेक राजाधों द्वारा सेवित थे। श्रार्यसेन के शिष्य महासेन थे । २ शिलालेख में महासेन मुनीन्द्र के छात्र चाक
१. स विजयतां रविकीर्तिः कविताधित कालिय स भारवि कीर्तिः । मेगुति लेख
२. श्रीमूलरांधे जिनमंमूले, गणाभिधाने वरसेन नाम्नि ।
गच्छेषु तुच्छ्रेऽपि योग भिक्खे संस्तूयमानो मुनिरार्य्यसेनः ॥ तस्यासेनस्य मुनीश्वरस्य शिष्यो महासेन महा मुनीन्द्रः ॥
—जैन लेख सं० भा० २ ० २२८