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________________ १८० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ इस काव्य पर योगिराट पंडिताचार्य नाम के किसी विद्वान को एक संस्कृत टीका है। जो संभवत: १५वी शताब्दी के अन्तिम चरण का विद्वान था। टीका में जगह जगह 'रत्नमाला' नामक कोष के प्रमाण दिये हैं। रत्नमाला का कर्ता इरुगदण्डनाथ विजय नगर नरेश हरिहरराय के समय शक सं. १३२१ (वि. सं. १४५६) के लगा है। शत: पिलनाचार्ग उसके बाद के विद्वान होना चाहिये । काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्त में जिनसेन को अमोघवर्ष का गुरु बतलाया गया है। पुन्नाट संघीय जिनसेन ने शक सं. ७०५, (सन् ७८३) में पार्वाभ्युदय काश्य का हरिवंशपुराण के निम्न पद्य में उल्लेख किया है : यामिताभ्युदये पाय जिनेन्द्रगणसंस्तुतिः । स्वामिनों जिनसेनस्य कीति संङ्गीतयत्यसौ ॥ अतः पाश्र्वाभ्युदय काव्य शक सं० ७०५ (वि० सं०८४०) से पूर्व रचा गया है। अर्थात् शक सं० ७०० में इसकी रचना हुई है। प्रादिपुराण-प्राचार्य जिनसेन ने प्रेसठशाला का पुरुषों के चरित्र लिखने की इच्छा से 'महापुराण' का प्रारम्भ किया था। किन्तु बीच में ही स्वर्गवास हो जाने के कारण उनकी वह अभिलाषा पूरी नहीं हो सकी। पौर महापुराण अधूरा ही रह गया । जिसे उनके शिष्य गुणभद्र ने पूरा किया। महापुराण के दो भाग हैं । प्रादि पुराण और उत्तर पुराण । प्रादि पुराण में जैनियों के प्रथम तीर्थकर आदि नाथ या ऋषभ देव का चरित वर्णित है । और उत्तर पुराण में प्रवशिष्ट २३ तीर्थकरों और शलाका पुरुषों का । प्रादि पुराण में ४७ पर्व और बारह हजार श्लोक हैं। इनमें जिनसेन ४२ पर्व पूरे और ४३ व पर्व के ३ श्लोक ही बना सके थे कि उनका स्वर्गवास हो गया। तब शेष चार पर्दो के १६२० श्लोक उनके शिष्य गुणभद्र के बनाये हुए हैं।। आदि पुराण उच्च दर्जे का संस्कृत महाकाव्य है। प्राचार्य गुणभद्र में उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि-'यह सारे छन्दों और अलंकारों को लक्ष्य में रखकर लिखा गया है। इसकी रचना सुक्ष्म अर्थ और गूढ़ पद वाली है। उसमें बड़े बड़े विस्तृत वर्णन हैं जिनके अध्ययन से सब शास्त्रों का साक्षात् हो जाता है। इसके सामने दूसरे काव्य नहीं ठहर सकते, यह उदय है, और व्युत्पन्न बुद्धिवालों के द्वारा ग्रहण करने योग्य है और कवियों के मिथ्या अभिमान को दलित करने वाला है, अतिशय ललित है। जिनसेन का यह आदि पुराण सुभाषतों का भंडार है। जिस तरह समुद्र बहुमूल्य रत्नों का उत्पत्ति स्थान है, उसी तरह यह पुराण सूक्त रत्नों का भंडार है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं ऐसे सुभाषित इसमें सुलभ हैं। और स्थान स्थान से इच्छानुसार संग्रह किये जा सकते हैं। प्राचार्य जिनसेन ने आदि पुराण' की उत्थानिका में अपने से पूर्ववर्ती भनेक प्रसिद्ध कवियों और विद्वानी का अनेक विशेषणों के साथ स्मरण किया है। १. सिद्धसेन २. समन्तभद्र ३. श्रीदत्त ४. प्रभाचन्द्र ५. शिवकोटि ६. जटाचार्य ७. काणभिक्ष-८. देव (देवनन्दि) ६. भट्टाकलंक १०. श्रीपाल ११. पात्र केशरी १२. वादिसिंह १३. वोर सेन १४. जयसेन १५. कवि परमेश्वर । इन सब विद्वानों का परिचय यथा स्थान दिया गया है। जयधवलाटीका कसाय प्राभत के प्रथम स्कन्ध की चारों विभक्तियों पर 'जयघवला नाम की बीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिख कर प्राचार्य वीरसेन का स्वर्गवास हो गया। अतः उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने प्रवशिष्ट भाग पर २. 'सकसच्छदोलंकृति सक्ष्यं सूक्ष्मार्थ गूढपदरचनम् ॥१७ 'ध्यावर्णनोइसारं साक्षात्कृतसर्वशास्त्रसद्भावम् । अपहस्तितान्य काव्य श्रव्यं व्युत्पन्नमतिभिरादेयम् ॥१८ 'जिनसेन भगवतोबतं मिथ्याकषि दर्पदलनमति ललितम् ॥१६ - उत्तर पुराण प्रवास्ति
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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