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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य पण्डित बोप्पण बोप्पण पण्डित-सूजनोत्तंस इसका उपनाम था। याच्चपण, पार्श्व, केशिराज प्रादि कवियों ने इसकी बहुत प्रशंसा की है । केशिराजने इसका 'सूकविसमाजनुत, कह कर उल्लेख किया है और इसकी ग्रन्थ पद्धति को लक्ष्यभून मान कर अपनी रचना की है। इससे जान पड़ता है कि यह अनेक ग्रन्थों का रचयिता होगा। परन्तु इस समय उसकी केवल दो छोटी-छोटी रचनाएं ही मिलती हैं। जिनमें से एक तो 'गोम्मटेश्वर, को स्तुति है और दूसरी ' निर्वाणलक्ष्मी पति नक्षत्रमालिका, नाम की कविता है। गोम्मटेश्वर की स्तुति में कनड़ी के २७ पद्य है जो धवण लगुलके ८५ (२३४) ३ शिलालेख में अंकित है। 'निर्वाणलक्ष्मीपति नक्षत्रमालिका में भी २७ कनड़ी पद्य हैं । कवि ने मोम्मटेश्वर की स्तुनि सैद्धान्तिक चरेश्वर नयकाति ने शिष्य ग्राध्यात्मिक वालचन्द्र की प्रेरणा से रची थी। इससे स्पष्ट है कि कवि बालचन्द्र के समकालीन था। श्रवण बेलगुल का ८५ वां शिलालेख शक संवत् ११०२ सन् १९८० का लिगा हुआ है । अतः कबि का समय १२वों शताब्दी है। जैन लेख सं० भा०११.१६६ धीरदन्दी मूलमंघ देशोयगण के प्राचार्य मेषचन्द्र विद्य देव के पात्मज और शिष्य थे, जिनकी नाविन चावी, सिद्धान्तेश्वर-शिखामणि विद्य देव उपाधियां थीं। जैसा कि प्राचारसार के निम्न प्रशस्ति वाक्य में प्रकट है:- . बैदग्धश्री वधूटी पतिरतुलगुणालंकृतिमेघचन्द्रस्त्रविद्यस्यात्मजातो मदनमहिमतो भेदने वनपातः ।। संद्धान्तिव्यूहचड़ामणिरत्नुफलचिन्तामणि जनामा । योऽभत सोजन्यरुन्द्रश्रियमवति महावीरनन्दी मुनीन्द्रः ।। -प्राचारसार १२, ४२ प्राचार्य वीरनन्दी चतुरता रूपी लक्ष्मी के स्वामी हैं, अनुपम गुणों से अलंकृत हैं। मेषचन्द्र विद्यदेव के प्रात्मज-पुत्र हैं, और कामदेव रूपी पर्वत को भेदन करने लिये वच के समान हैं, सिद्धान्त शास्त्रज्ञों के समूह में चड़ामणि है, और पृथ्वी-मंडल के लोगों को इच्छित फल देने वाले उत्तम चिन्तामणि हैं। ऐसे थी वीरनन्दी मुनि सज्जनता रूप सघन लक्ष्मी को सदा रक्षा किया करते हैं। प्रस्तुत करनन्दी अपने समय के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने अपने प्राचारसार में अपने गुरु मेघचन्द्र की बड़ी प्रशंसा की है। चंकि मेघचन्द्र विद्यदेव का स्वर्गवास शक सं० १०३७ (वि० संवत् ११७२) में मगसिरसुदी चतुर्दशी वहस्पतिवार के दिन धनुलग्न में हुमा था। जैसा कि श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. ४७ के निम्न वाक्य से प्रकट है: "सकवर्ष १०३७ नेय मन्मथसंवत्सरद मार्गसिर सुद्ध १४ वृहबार धनुलग्नद पूर्वाण्हदारुषलिगेयप्पा गलु श्रीमूलस हद देसियगणद पुस्तक गच्छ थी मेघचन्द्र विद्यदेव तम्मवशान कालमनरिदु पल्यंकाशन दोलि प्रामभावनेयं भाविमुत्तं देवलोकक्के सन्दराभावनेयेन्तप्पदेन्दोडे।" अनन्तबोधात्मकमास्मतत्त्वं निधायचेतस्यपहाय हेयं । विद्य ना मा मुनि मेघचन्द्रो दिवंगतो बोधनिधि विशिष्टाम ॥ इनके प्रमुख शिष्य प्रभाचन्द्र नाम के थे। इन्हीं प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देवने महा प्रधान दण्ड नायक गंगगज द्वारा मेषचन्द्र की निषद्या का निर्माण कराया था। प्रवचनसारादि ग्रन्थों के टीकाकार प्राचार्य जयसेन ने पंचास्ति काय की दूसरी गाथा को टीका में प्राचार्य १. मूलसंघ कृत पुस्तक गच्छ देशीयोद्यङ्गणाधिपमुताकिक चक्रवर्ती। सैद्धान्तिकेश्वरशिखामणिमेषचन्द्रस्त्रविद्य देव इति सविबुधाः स्तुवन्ति ॥२६॥ धवरण. अन ले. सं. भा. १ ले.नं०४२१०१८
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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