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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
वीरनन्दी के 'श्राचारसार' के चतुर्थ अधिकार के ६५, ९६ नं० के दो श्लोक उद्धृत किये हैं । और डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी प्रवचनसार की प्रस्तावना में प्राचार्य जयसेन का समय ११५० ई० के बाद विक्रम की १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध निश्चित किया है। इससे स्पष्ट है कि श्राचार्य जयसेन वीरनन्दी के ही समकालीन थे; क्योंकि श्राचारसार के मूल रचे जाने के कुछ समय बाद आचार्य वोरनन्दी ने ११५३ A.D. (वि० सं० २२१०) में उस पर एक कनड़ी टीका बनाई। इससे प्राचार्य वीरतन्दी का समय वि० को १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। वे १३वीं शताब्दी में १० वर्ष जीवित रहे हैं। क्योंकि कन्नड टीका उस समय रची गई है। इनके शिष्य नेमिनाथ ने प्राचार्य सोमदेव के 'ती' बनाई है।
'आचारसार' संस्कृत भाषा का अपूर्व ग्रन्थ है । इसमें श्रवणों मुनियों की क्रियाओं का उनके श्राचारविचार का वर्णन किया गया है। साथ ही अन्य आवश्यक विषयों का भी समावेश किया गया है । इस ग्रन्थ में 'मूलाचार' के समान १२ अधिकार दिये हैं, मुलाचार और आचारसार का तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि वीरनन्दी ने मूलाचार को सामने रखकर इसकी रचना की है। आदि अन्त मंगल और प्रशस्ति को छोड़कर शेष सब श्लोकों का मूलाचार के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध जान पड़ता है। हां, विषय वर्णन की कमवद्धता तो नहीं है । मूलाचार के १२व पर्याप्त अधिकार का वर्णन आचारसार के तीसरे चौथे सर्ग में पाया जाता है । इसकी तुलना मैंने जैन सि० भा० भाग ६ की प्रथम किरण में दी हुई है । ग्रन्थ पर वीरनन्दी की कन्नड़ टीका भी है, जो अभी प्रकाशित नहीं हुई ।
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गणधर कोति
यह मनि गुजरात के निवासी थे। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा प्रशस्ति में निम्न प्रकार दी है सागर नन्दी, स्वर्णनन्दी, पद्मनन्दी, पुष्पदन्त कुवलयचन्द्र और गणधर कीर्ति । यह आचार्य पुष्पदन्त के प्रशिष्य और कुवलयचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने किन्ही सोमदेव के प्रतिबोधनार्थ, गूढ अर्थ और संकेत को दूरने वाली सोमदेवाचा की 'ध्यान विधि' नामक ४० पद्यात्मक ध्यान ग्रन्थ पर टीका लिखी है । टीका का नाम श्रध्यात्म तरंगिणी है। इसमें भगवान आदिनाथ की ध्यानावस्था का वर्णन करते हुए ध्यानों का स्वरूप और विधि का विधान किया है। इस टीका का नाम अध्यात्मतरंगिणी है । लेखकों की कृपा से मूलग्रन्थ का नाम भी अध्यात्म तरंगिणी हो गया है ।
गणधर कीर्ति ने वाट ग्राम ( बटपद्र ) जहां वीरसेनाचार्य ने धवला टीका लिखी थी । वसति' नाम का जैनमन्दिर था । वहीं पर गणधर कीर्ति ने यह टीका विक्रमसंवत १९८६ सन् पंचमी रविवार के दिन गुजरात के चालुक्य वंशीय राजा जयसिंह या सिद्धराज जयसिंह के समाप्त की है- जैसा उसके निम्न पद्म से प्रकट है :
एकादश शताकीर्णे नवाशीत्युतरे परे । संवत्सरे शुभे योगे पुष्य नक्षत्रसंज्ञके ॥१७ चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रषौ विने । सिद्धा सिद्धिप्रदा टीका गणभूतकीर्ति विपश्चितः ।। १८ निस्त्रिशत जिताराति विजयश्री विराजनि । जयसिंहदेव सौराज्ये सज्जनानन्व वायनि ।। १६
१. श्री सोमसेन प्रतिबोधनार्थं धर्माभिधानोच्चयशः स्थिरः । गूढार्थसन्देहहरा प्रशस्ता टीका कृताध्यात्म तरङ्गिणीयम् ।
वहां शुभतुरंग देव क ११३२ में चैत्र शुक्ल राज्य काल में बनाकर
भट्टवसरि
यह दिगम्बराचार्य दामनन्दी के शिष्य थे। इन्होंने दामनन्दी के पास से प्रायों के गुह्य रहस्