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________________ जैन धर्म का प्रावीन इतिहास-भाग २ युद्धों का बोझ ढोते-होते जनके कन्धे घिस गये थे, उन्होंने अनेक युद्ध किये थे। के कृष्णराज के सेनापति और दान मंत्री भी थे। वे कवियों के लिये कामधेन, दीन-दुखियों की प्राशा पूरी करने वाले, चारों ओर प्रसिद्ध, परस्त्री पराङ्मुख, सच्चरित्र उन्नतमति प्रौर सुजनों के उद्धारक थे। उनका रंग सांवला था, उनकी भुजाएं हाथी को सूंड के समान थीं, अङ्ग सुडौल नेत्र सुन्दर और वे सदा प्रसन्न मुख रहते थे। भरत बहुत ही उदार और दानो थे। भरत ने पुष्पदन्त से महापुराणको रचना कराकर अपनी कोर्ति को चिरस्थायी बनाया। पाय कुमार चरिउ (नाग कुमार चरित)- यह एक छोटा-सा खण्ड काव्य है। इसमें हसन्धियां हैं। जिनमें पंचमी व्रत के उपवास का फल बतलाने वाला नाग कुमार का चरित अंकित किया गया है, रचना सुन्दर-प्रोढ़ और हृदय-द्रावक है और उसे कवि ने चित्रित कर कण्ठ का भुषण बना दिया है। ग्रन्थ में तात्कालिक सामाजिक परिस्थिति का भी वर्णन है । ग्रन्थ की रचना भरत मन्त्री के पुत्र नन्न को प्रेरणा से हुई है। नन्न को यशोधर चरित में 'वल्लभ नरेन्द्र गृह महत्तर'-वल्लभ नरेन्द्र का गृह मन्त्री लिखा है । नन्न अपने पिता के सुयोग्य उत्तराधिकारी थे और वे कवि का अपने पिता के समान आदर करते थे। वे प्रकृति से सौम्य थे, उनकी कीर्ति सारे लोक में फैली हुई थी। उन्होंने जिन मन्दिर बनवाए थे। वे जिन चरणों के भ्रमर थे, और जिनपूजा में निरत रहते थे, जिन शासन के उद्धारक थे, मुनियों को दान देते थे, पापरहित थे, बाहरी और भोतरी शत्रयों को जीतने वाले थे, दयावान् दीनों के शरण राजलक्ष्मी के श्रीटा सरोबर, मामाही . निया, और तमाम विद्वानों के साथ विद्या-विनोद में निरत एवं शुद्ध हृदय थे।" १. ........................." पोसेसकला विभणाणकुसलु । पायपकइ कव्वरसावउबु-संपीय सरासह सुरहि दुबु ।। कमलच्छु अमच्छरु सच्चसंधु, रणभर घुर धरणग्घुठलंभु । २. सोयं श्री भरतः कलंक रहितः कान्तः सवत्सः शुचिः । सज्योतिर्मनिराकरो प्लुतइवानयो गुणभासते। वंशो येन पवित्रतामिह महामात्यायः प्राप्तवान् । श्रीमदल्लभराज शक्तिकटके यश्चाभवनायकः ।। प्र० पलो०४६ है हो भन्न प्रचण्डावनि पति भवने त्याग संस्थान कर्ता, कोयं श्यामः प्रधानः प्रवरकरिकराकारबाहुः प्रसन्नः । पन्यः पालेय पिण्डोपमधषलवशो धौतधात्रीतलान्तः । स्थातो बन्धुः कवीनां भरत इति कथं पान्य जानासि नो त्वम् ॥प्र० श्लो० १५ ३. सविलास विलासिणि हियहयेणु सुपसिद्ध महाकइ कामधे । काणीपदीएपरिपूरियासु जसपसरपसाहिय दसदिसासु । पर रमणि परम्मुह सुद्धसीलु उपायमा-सुयाधरणलीलु ।। ४. श्यामरुचि नयन सुभगं लावण्य प्रायमंगमादाय । भरतच्छलेन सम्प्रति कामः कामाकृतिमुपेतः ।। प्र० श्लो० २० ५. सुहतुगभवरणवाबार भार रिणव्यहण वीरधवलस्स । कोंडिल्लगोत्तणहससहरस्स पयईए सोमस्स ।।१ कुंद वागम्भ समुभवास सिरि भरत भट्टतणयस्स । जस पसर भरिय भुवणोयरस्स जिणचरण कमल भसलस्य ।।२ अणवरय रइय वरजिरणहरस्स जिणभवरणपूय रिणरमस्स । जिण सासणायमुशारणस्स मुणिदिण्णदाणस्स ॥३ भागकु. ५०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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