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________________ तेरहवीं और बारहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि इन्द्रवज्जा और शार्दूल विक्रीडित आदि छन्दों में निबद्ध है जैसा कि उसके निम्न पद्यसे स्पष्ट है : या देव-धर्म-गुरुपादपयोज भक्ता, सर्वज्ञवेव सुखदायि मतानुरक्ता । संसारकारिकुकथा कथने विरक्ता सा रूपिणी बुधजनैनं कथं प्रशस्था || -२-२ यह काव्य-ग्रन्थ सीधी-सादी एवं सरल भाषा में निबद्ध है किन्तु भाषा चलती हुई प्रसाद गुण युक्त है । इसमें विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के जन सामान्य में प्रचलित भाषा के शब्द यत्र-तत्र मिलते हैं- जैसे जावहि ज्योंही, तादहि-त्योंही, सपत्तउ ( सपाटे से ) विल्ल (वेल), कखंद (करोदा) तसे) भाषा में मुहावरे लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का प्रयोग हुआ है। बोलचाल की भाषा के प्रयोग भी देखने में आते हैं। सूक्तियां भी जन सामान्य में प्रचलित पाई जाती हैं यथा faणु उज्जमेण णउ किंपि होइ - बिना उद्यम के कोई काम नहीं बनता । जहि सच्चइ तह फिरिफिरि रमई जहाँ अच्छा लगता है वहां मनुष्य बार-बार जाता है। ग्रन्थ का चरितभाग धनपाल की भविसयत्त कथा से समानता रखता है । परन्तु धनपाल की भविसयत्त कथा की भाषा प्रोढ है । परन्तु धनपाल की कथा के समान भाषा का प्रांजल रूप, अलकरणता, कल्पनात्मक वैभव और सौन्दर्यानुभूति की झलक श्रीधर की भविष्यदत्त कथा में नहीं गाई जाती । फिर भी ग्रन्थ महत्वपूर्ण है । कविने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १२३० (सन् ११७३ ई०) के फाल्गुनमास के कृष्णपक्ष की दशवीं रविवार के दिन समाप्त की है। ३६.७ niraara far (क्षपणासारगद्य के कर्ता ) प्रस्तुत माधवचन्द्र मूलसंघ काणूरगण तिन्त्रिणी गच्छ के विद्वान मुनि चन्द्रसूरि के प्रशिष्य और सकलचन्द्र के शिष्य थे। जो तर्क सिद्धान्तादि तीन विषयों में निपुण होने के कारण त्रैविद्य कहलाते थे । जैन शिलालेख संग्रह तृतीय भाग के लेख नं० ४३१ में, जो शक सं० १११९ (वि० सं० १२५४ का उत्कीर्ण किया हुआ है, उसमें मुनिचन्द्र और कुलभूषणव्रती के शिष्य सकलचन्द्र भट्टारक के पादों (चरणों) का प्रक्षालन करके महाप्रधान दण्डनायक ने कुछ चावलों की भूमि, दो कोल्हू और एक दुकान का 'एदग' जिनालय को दान दिया है | इन्हीं सकलचन्द्र के शिष्य उक्त माधवचन्द्र हैं, जिनकी उपाधि विद्य थी। इन्होंने क्षुल्लकपुर (वर्त मान कोल्हापुर) में क्षपणासार गद्यकी रचना की है । क्षपणासार गद्य में कर्मों के क्षपण करने की प्रक्रिया का सुन्दर वर्णन किया गया है। माधवचन्द्र ने इस ग्रन्थ की रचना शिलाहार कुल के राजा वीर भोजदेव के प्रधान मंत्री बाहुबली के लिये की थी । और जिन्हें माधवचन्द्रने भोजराज के समुद्धरण में समर्थ, बाहुबल युक्त, दानादिगुणोत्कृष्ट, महामात्य श्रीर लक्ष्मीवल्लभ बतलाया है। उन्हीं के लिये शकसं० १९२५ (सन् १२०३ ) वि० सं० १२६० में क्षपणासारगद्य का निर्माण किया था, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है : श्रमुना माधवचन्द्र विष्यगणिना श्रवधिक शिक्षा, क्षपणासारमकारि बाहुबलिसमंत्रीशसंशप्तये । १. खरणाहविवकमाइच्वकाले पवहंत सुयारए त्रिसाले । बारहमय वरिमहि परिगएहि फागुणमासम्म बलवते । दहिदि तिमिरुककर विचवखे, रविवार समाज एउ सत्य ।। जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २ २. “पंचांग मंत्रबृहस्पतिसमानबुद्धियुक्त भोजराजप्राज्य साम्राज्य समुद्धरणसमर्थ - बाहुबल महामात्य पदवी लक्ष्मीवल्लभ - बाहुबलिमहाप्रधानेन वा । " ० ५० १ युक्त - दानादि गुणोत्कृष्ट ---क्षपणासार गद्य प्रशस्ति जैन प्रन्थ प्र० सं० भा० १५. १६५
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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