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________________ ३१८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ शाककालेशार-सूर्य-चन्द्रगणिते जाते पुरे क्षल्लके, शुभवे दुभिवत्सरेविजयतामानन्द्रतार भुवि ।। इन्हीं भोजराज के राज्यकाल में कोल्हापुर देशान्तवर्ती अर्जु रिका (माजर) नामक गांव में क्षपणासार गद्य की रचना के दो वर्ष बाद शक सं० ११२७ क्रोधन संवत्सर (वि० स० १२६२) में सोमदेव ने शब्दार्णव धन्द्रिका नाम की जैन व्याकरण की वृत्ति समाप्त की थी | मुनि विनयचन्द्र ___ यह मूलसंघ के विद्वान सागरचन्द्र मुनीन्द्र के शिष्य थे । इन्हें पडित प्राशाधर जी ने धर्मशास्त्र का प्रध्य विनयचन्द्र मुनि के अनुरोध से प्राशीधर जी ने भव्यजनों के हिनार्थ इण्टोपदेशटोका भूपाल कविकृत चविशतिका टोका और देवसेन के प्राराधनासार को टोका बनाई थी इन में प्रथम दो टीकाएं प्रकाशित हो चुकी हैं । किन्तु आराधनासार' की टीका उपलब्ध नहीं हुई थी। किन्तु पामेर के शास्त्र भण्डार में संवत् १५८१ की लिखी हुई पाराधनासार की टोका उपलब्ध है । टीका अत्यन्त संक्षिप्त है, जो गायानों के गादों के प्रथं का बोधकराती है, 1 जैसा कि उसके मंगल पद्य तथा प्रतिज्ञा वाक्य से स्पष्ट है : प्रणम्य परमात्मानं स्वशक्त्याशाधरः स्फुटः । आराधनासारगद पवार्थाकथयाम्यहम् ॥५१ "धिमलेत्यादि-विमलेभ्यः क्षीणकषायगुणेभ्योऽतिशयेन विमला विमलतरा शुद्धतराः गणा परमावगाह सम्यग्दर्शनादयः । सिद्धं जीवन मुक्त जगत्प्रतोतं वा । सुरसेन वंदियं सहइ वः स्वामिभिर्वर्तते सेनाः स स्वामिकाः निजानजस्ता भियुक्त चतुणिकायववस्तथा देवसेननाम्ना ग्रन्थकृता नमस्कृतमित्यर्थः। पाराहणासारं सम्यग्दर्शना वोमुद्योतनायुपाय पंचकाराधना तस्याः स सम्मावानादि चतुष्टयं । तया तस्य वा राधना तयोपादेययत्तात् ॥" अन्त में लिया है "विनयेन्दुमुनेहेंतोराशाधरकवीश्वरः । स्फुटमाराधनासार टिप्पनं कृतवानि ॥" श्री विनय चन्द्रर्थमित्याशाधरविरचिताराधनासार विवृत्तिः समाप्ता। अतः विनयचन्द्र का समय वि० सं० १२७० से १२६६ तक जान पड़ता है । --रामचन्द्रमुमुक्षु प्राचार्य कुन्द-कुन्द की वंशपरम्परा में दिव्य बुद्धि के धारक केशवनन्दी नामके प्रसिद्ध यति हुए । जो भव्य जीव रूप कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यसमान, थे, सयम के प्रतिपालक, कामदेव रूप हाथी को नाट करने में सिह के समान पराक्रमी, और अनेक दुःखोत्पादक कमरूपो पर्वत को भेदन के लिये वज्र के समान थे । बड़े-बड़े योगीन्द्र और राजा महाराजा जिनके चरणी की वन्दना करते थे । और जो समस्त विद्याओं में निप्णात थे । उन्हीं --पूरी गाया इस प्रकार है : १.जैन ग्रन्थप्रशस्ति सं० भाऊ १पृ० १९९ २. उपशम व मृत सागरेन्द्रो मुनीन्द्रादजनि विनयचन्द्रः सच्चकोरक चन्द्रः । जगदमत सगर्भाः शास्त्रसंदर्भगर्भाधुचिचरितवरिष्णो यस्य धिन्वंतिवाचः ।। ३. विमल पर गुगासमिद्ध, सिद्धं सुरसेगा बंदियं सिरसा। समिऊरण महावीर चोच्छ आराहणा सारं ॥१ ४. "पो भयान-दिवाकरो यमकरो मारेभ पञ्चाननो, नानादुःखविधाषिकर्मकुभतो बचायते दिव्यधीः । यो योगीन्द्र-नरेन्द्र-वन्दित पदो विधारणेवोत्तीएवान्, श्यातः केशवनन्दिदेव-यतिपः श्रीकुदकु'दान्वयः ॥१॥
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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