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________________ तेरहवीं और चौदहवीं पाताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि के शिष्य रामचन्द्र मुमुक्ष था, जो समस्तजनों का हिताभिलाषी था। रामचन्द्र मुमुक्ष ने पद्मनन्दी नामके श्रेष्ठ मुनीन्द्र के पासमें व्याकरण शास्त्र का अध्ययन कर गिरि और समिति के बराबर संख्यावाले सत्तावन पद्यों द्वारा पुण्यास नामक कथा ग्रन्थ की रचना की। प्रस्तुत ग्रन्थमें ५६ कथाएं हैं, जो छह अधिकारों में विभाजित हैं, जिन की श्लोक संख्या साढ़े चार हजार है। प्रथम पांच खण्ड में पाठ-आठ कथाएं हैं, और अन्तिम छठे खण्ड में १६ कथाएं दी हैं। प्रथम अष्टक की कथाओं में देवपूजा में अर्हन्तदेव के स्वरूप की बोधक पौर देवपूजा के महत्व को स्यापित करनेवाली कथाएं दी हैं, जो पुण्यफल की प्रतिपादक हैं। दुसरे 'अष्टक में णमो प्ररहताण' प्रादि पंच नमस्कार मन्त्र के उच्चारण करने वाली और उसके प्रभावको व्यक्त करने वाली पाठ कथाएं दी हैं, जिनसे पंच नमस्कार मन्त्रको महत्ता का बोध होता है, और पुण्यफल की प्राप्ति रूप सदगतिका लाभ प्रतिपादित किया है। तृतीय प्रष्ट कमें स्वाध्याय के पुण्य फलकी प्रतिपादक कथाएं दी हैं, जिनमें शास्त्रों के पठन-पाठन, उनके श्रवण और उच्चारण आदि का पुण्य भी निर्दिष्ट है। चौथे अष्टक में शीलवत के पालकों की पुण्य कथाएं दी हैं। गृहस्थों में पुरुषों को अपनी पत्नी के प्रति और पत्नी को पति के प्रति पूर्ण शीलवान होना आवश्यक है। पांचवें अष्टक में उपवास के पुण्यफल की प्रतिपादक कथाएं दी हैं। और छठे खण्ड में पात्रदान के महत्व की प्रतिपादक १६ कथाएं दी हैं। इन सब कथायों के अध्ययन में जहां भावविशुद्धि होती है, वहां उनके प्रति आस्था भी उत्पन्न हो जाती है । महा कवि रइधू ने भी अपभ्रंशभाषा में पुण्यासव कथाकोष की रचना की है। ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया, और न रचनास्थल का ही उल्लेख किया है। कर्नाटक कवि चरित से ज्ञात होता है कि नागराज ने कन्नड़ भाषा में 'पुण्यास्रव चम्पू कान्यकी रचना शकसंवत् १२५३ (सन् १३३१ में की है जो संस्कृत ग्रन्थ का कनड़ी भाषान्तर है। बहुत सम्भव है कि नागराज ने रामचन्द्र मुमुक्षु के पुण्यास्रब का प्राधार लिया हो । क्योंकि दोनों में अत्यधिक समानता पाई जाती है। इससे रामचन्द्र मुमुक्ष की रचना पूर्ववर्ती है। इनका समय वित्रम की १३ वीं शताब्दी जान पड़ता है। निश्चित समय तो केशवनन्दी के समय का निश्चय हो जाने पर मालूम हो सकता है। विमलकोति प्रस्तुत विमलकीति रामकीति गुरु के शिष्य थे । रामकीर्ति नाम के चार विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उनमें प्रथम रामकीति के शिष्य विमल कीति हैं। दूसरे रामकोति मूलसंघ बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ के विद्वान ये 1 इनके शिष्य म०प्रभाचन्द्र ने सं० १४१३ में बैशाख सुदि १३ बुधवार के दिन अमरावती के चौहान राजा अजयराज के राज्य में बल कचुकान्वयी श्रावक ने एक जिनमूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। जो खण्डितदशा में भौगांव के मन्दिर को छतपुर रखी हुई है। - - १. "शिष्योऽभूत्तस्यभन्मः सकल जनहितो रामचन्द्रो मुमुक्षु त्विा शब्दापशब्दान् सुविशद यशसः पद्मनन्द्याभिधानात् (याद)। वन्यावादीमसिंहात्परमयतिपतेः सो व्यधाद्भव्यहेतोग्रंन्यं पुण्यावारूप गिरिसमितिमितं दिव्यपद्यैःकथाः ॥२॥ -जनग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा०१ पृ० १५४ २. संवत १४१३ वंशाख सुदि १३ बुधे श्रीमदमवरावती नगराधीश्वर वाहवाण कुल श्रीअजयराय देव राज्य प्रवर्तमाने मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्रीरामकोतिदेवास्तस्य शिष्य म. प्रमाचन्द्र लंबकंचु कान्क्ये साघु..."भाई सोहस तयोः पुत्रः सा. जोवदेव भार्या सुरकी तयोः पुत्रः केशो प्रणमति । देखो जैन सि. भा. भा. २२ अक ३
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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