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________________ KRY जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - मांग २ विजयोति जिनका शरीर तप से क्षीण हो गया था, आम्नाय के विद्वान थे। इन्होंने ग्वालियर के तोमर वंशी राजा कीर्तिसिंह के राज्यकाल में सं० १५२५ में भाद्रपद शुक्ला ५वीं गुरुवार के दिन लम्बकंचुक वंश के साहु जिनदास के पुत्र हरिपाल के लिए अपभ्रंश भाषा में दसलक्षणव्रत की कथा की रचना श्रादिनाथ के चैत्यालय में की है' । "जिन ग्राइणाह चेइ हरयं विरइय दहलवण कह सुवयं गुणम्नलयं, पंदहसङ्घ चजवीस मलयं ॥ विमलं, गुरुवार विसारयणु खलु प्रमलं ॥ " उवएसय कहियं भादव सुदि पंचमि - प्रग्रवाल मन्दिर उदयपुर, जैन ग्रन्थ सूची भा० ५, पृ० ४४५ इससे पं० हरिचन्द का समय वि० की १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । यह मूल के पंडित मेधावी भट्टारकीय विद्वान थे। इनका वंश अग्रवाल था । यह साहू लवदेव के प्रपुत्र मीर उद्धरण साहु के पुत्र थे। इनकी माता का नाम 'भीषही' था । यह आप्त आगम के विचारश और जिनचरण कमलों के भ्रमर थे। इन्होने अपने को पंडित कंजर लिखा है । यह विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के अच्छे विद्वान और कवि थे । इन्होंने अनेक ग्रन्थों की पुस्तकदात्री प्रशस्तियाँ भी लिखी हैं जिनमें लिपि कराने वाले दातार के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय कराया गया है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इनसे स्पष्ट है कि विक्रम की १६वीं शताब्दी में श्रावकों द्वारा हस्तलिखित ग्रन्थों को लिखाकर प्रदान करने की परम्परा जैन समाज में प्रचलित थी । शास्त्र दान की यह परम्परा जहाँ श्रुतभक्ति पर उसके संरक्षण को बल प्रदान करती है, वहाँ दातार भी अपनी विशुद्ध भावनावश अपूर्व पुण्य का संचय करता है। इससे ग्रन्थों के संकलन और श्रुतरक्षा को प्राय मिला है। इन दातृ प्रशस्तिनों के कारण मेधावी उस समय प्रसिद्ध विद्वान माने जाते थे। मेधावी द्वारा लिखित दातृ प्रशस्तियाँ सं० १५१६, १५१६, १५२१, १५३३ और १५४६ की लिखी हुई, मूलाचार, तिलीय पणती, तस्वार्थभाष्य (सिद्धसेन गणि) जंबूद्वीप पण्णत्ती, मध्यात्म तरंगिणी और नीतिवाक्यामृत को मेरी नोट बुक में दर्ज हैं। सं० १५१४ में ज्येष्ठ सुदी ३ गुरुवार के दिन हिसार में बहलोल लोदी के राज्य में अग्रवालवंशी बंसल गोत्री साहु छाजू ने हेमचन्द्र के प्राकृत हेम शब्दानुशासन की प्रति लिखाकर प्रदान की थी, जो अजमेर के हर्ष को ति भंडार के बड़े मन्दिर में मौजूद है । मेघावी ने सं० १५४१ में एक श्रावकाचार की रचना की थी, जिसे धर्म संग्रह श्रावकाचार के नाम से उल्ले खित किया जाता है । इनका समय १५०० से १५५० तक का रहा है। यह विक्रम की १६वीं शताब्दी के विद्वान हैं। कवि महिन्दु या महाचन्द्र महाचन्द्र इल्लराज के पुत्र थे । नामोल्लेख के अतिरिक्त कवि ने अपना कोई परिचय नहीं दिया। प्रशस्ति १. जिण ओदाह वेद हरयं विरइय दह लक्खा कह सुषयं । जब एसय कहियं गुणग्गलयं, पंदहसद बउवीस मलयं ॥ भादव सुदि पंचमी अविमलं, गुरुवार विसारयणु खलु अमलं । taff युग्गड दाइ तोमरहं वंस कित्तिम समयं ॥ वर लंबकं सह तिलकं निगादास सुषम्यहं पुरा फिलयं । भजा विसुतीला गुणसहियं दण हरिपारु बुद्धिरिहियं ॥ २. प्रप्रोत वंशजः साधुर्लव देवाभिधानकः । तस्वगुद्धरणः संज्ञा तत्पत्नी मोहोप्सुभिः ||३२ तयोः पुत्रोऽस्ति मेधावी नामा पंडितकुंजरः । प्राप्यागम विचारज्ञो जिनपादाब्ज षट्पदः ॥३३, - दशलक्षण कथा प्रशस्ति । 'तत्वार्थ भाष्य दातृ प्रा०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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