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________________ २१० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ रचना काल रामसेन ने अपने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया और न उसके रचना स्थान आदि का ही उल्लेख किया है इससे ग्रन्थ के रचना काल पर प्रकाश डालने के लिये कठिनाई उपस्थित होती है । ग्रन्योल्लेखों, प्रशस्तियों ● शिलालेखों और ताम्रपत्रादि में भी ऐसा कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । जिससे ग्रन्थ के रचना काल पर प्रकाश पड़ता । श्रतएव अन्य साधन सामग्री पर से रचना काल पर विचार किया जाता है । के ६४ पर्व में भगवान कुन्थुनाथ जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्राचार्य द्वारा रचित उत्तरपुराण के चरित को समाप्त करते हुए निम्न पद्य दिया है: देह ज्योतिषि यस्य शक्र सहिताः सर्वेपि मग्नाः सुराः । ज्ञान ज्योतिषि पंच तत्व सहितं मग्नं नभश्चाखिलम् । लक्ष्मी धाम दधद्विधूत विततध्यायन्तः सधामद्वयपंथानं कथयत्वनन्तगुणभृत् कुन्युर्भवान्तस्य वः ॥५५ इस पद्य के साथ तत्वानुशासन के अन्तिम निम्न पद्य का अवलोकन कीजिए:बेहज्योतिषि यस्य मज्जति जगत् दुग्धाम्बुराशाविव ज्ञानज्योतिषि च स्फुटत्यतितरामो भूभंवः स्वस्त्रयो । शब्द-ज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थश्चकासन्त्यमी । स श्रीमानमराचितो जिनपति ज्योतिस्त्रयायास्तु नः ॥ २५६ इस पद्य में उत्तर पुराण के पच से जहां महत्व की विशेषता का दर्शन होता है वहां उसके आशिक अनु सरण का भी पता चलता है और यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि तस्वानुशासन कार के सामने अथवा उनकी स्मृति में उक्त पद्य को रचते समय उत्तर पुराण का उक्त पद्म रहा है। इसी तरह का अनुसरण तत्त्वानुशासन के १४८ पद्य में गुणभद्राचार्य रचित श्रात्मानुशासन के २४३ वें पद्म का भी देखा जाता है। दोनों पद्य इस प्रकार है: मामत्यमन्यं मां मत्वा भ्रान्तो भ्रान्तो भवार्णवे । नान्योऽह महमेवाऽह मन्योऽन्योन्योऽहमस्ति न ॥ नान्योऽस्मि नाहमस्त्यन्यो नाम्यास्या ऽहं न मे परः । truererयोsह मेवाsह मग्योऽभ्यस्याऽह मेव मे ।। १४८ श्रात्मानुशासन तस्वानुशासन इससे स्पष्ट है कि रामसेन के सामने गुणभद्राचार्य का प्रात्मानुशासन भी रहा है। श्राचार्य गुणभद्र का समय विक्रम की १०वीं शताब्दी का पूर्वाधं पाया जाता है; क्योंकि उत्तर पुराण की अन्तिम प्रशस्ति के २८व पद्य से ३७ वें पद्य तक गुणभद्राचार्य के प्रमुख शिष्य लोकसेन कृत प्रशस्ति में उसका समय शक सं० ८२०, सन् ८३८ ( वि० सं० ९५५) दिया है, ' यह उसके रचना काल का समय नहीं है किन्तु उत्तर पुराण के पूजोत्सव का काल है, जैसा कि उसके निम्न वाक्य- " भव्यः वः प्राप्तज्यं सर्वसारं जगति विजयते पुष्यमेतत्पुराणम्" - से जाना जाता है । पूजोत्सव का यह समय रचना काल से अधिक बाद का मालूम नहीं होता । यदि उसमें से पांच वर्ष का समय ग्रन्थ की लिपि आदि का निकाल दिया जाय तो शक सं० ८१५ ( वि० सं० ε५०) के लगभग उत्तर पुराण का रचना काल निश्चित होता है । इस तरह तत्त्वानुशासन के निर्माण समय की पूर्व सीमा वि० सं० ६५० स्थिर हो जाती है। इससे पूर्व की वह रचना नहीं है । किन्तु दशवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की जान पड़ती है । जयसेन के धर्मरत्नाकर के 'सामायिक प्रतिमा-प्रपंचन' नामक १५वें अवसर में तत्त्वानुशासन के निम्न पद्य को अपने ग्रन्थ का अंग बनाया गया है, जो तत्त्वानुशासन का १०७वां पद्य हैः १. शुकन्टपकालाभ्यन्तर विशरियधिकाष्ट शतमितादान्ते । मङ्गल महार्थकारिणि विङ्गलनामनि समस्तजन सुखदे || ३५ || - उत्तर पुराण प्रश
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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