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________________ नवमी-दशवीं शताध्वी के आचार्य E देवभट्टारकानुजेन वाक्य द्वारा महेन्द्रदेव का उक्त विशेषण दिया है जिससे वे वादियों के विजेता थे। बहुत सम्भव है कि प्रस्तुत महेन्द्रदेव उनके विद्यागुरु रहे हों । अन्य तोन गुरुओं के सम्बन्ध में कुछ ज्ञात नहीं होता । सभव है उस समय के साधु सघ में उक्त नाम के तीन विद्वान भी रामसेन के गुरु रहे हो । रचना-प्रस्तुत तत्त्वानुशासन प्रन्थ २५५ संस्कृत पद्यों को महत्वपूर्ण रचना है। इसमें अध्यात्म विषय का प्रतिपादन सुन्दर है वह भाषा और विषय दोनों हो दृष्टियों से महत्वपू है ग्रन्थकां भाषा जहां सरलप्रांजल एवं सहज बोधगम्य है, वहां वह विषय प्रतिपादन की कुशलता को लिये हुए है । ग्रन्थ कारने अध्यात्मजैसे नीरस कठोर और दुर्बोध विषय को इतना सरल एवं सुगम बना दिया है कि पाठक का मन कभी ऊब नहीं सकता । उसमें अध्यात्म रस की फुट जो अंकित है । ग्रन्थ में स्वानुभूति से अनुप्राणित रामसेन की काव्य शक्ति चमक उठी है वह अपने विषय की एक सुन्दर व्यस्थित कृति है। जिससे पाठक का हृदय ग्रात्म-विभोर हो उठता है । ग्रन्थ में हेय और उपादेय तत्व का स्वरूप बतलाते हुए बन्ध और बन्ध के हेतुत्रों को हेय तथा मोक्ष और मोक्ष के कारणों को उपादेय बतलाया है । कर्म बन्ध के कारण मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र को हेय और दुरगति एवं दुःख हेतु बतलाया है क्योंकि उनसे मोह-या ममकार तथा अहंकार की उत्पत्ति प्रादि संसार दुःख के कारणों का संचय होता है इसी से ऐसा कहा है। और सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र को उपादेय और सुख का कारण बतलाया। क्योंकि इन तीनों को धर्म बतलाया है।" आत्मा का मोह क्षोभ से रहित परिणाम धर्म है । और इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है। इसी से इन्हें उपादेय कहा है। कर्म बन्ध की निवृति के लिये ध्यान की आवश्यकता बतलाते हुए ध्यान, ध्यान की सामग्री और उसके भेदों आदि का सुन्दर स्वरूप निर्दिष्ट किया है। एकाग्रचित्त से पंच परमेष्ठियों के स्वरूप का चिन्तन स्वाध्याय है आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जो अरहंत को द्रव्यत्व गुणत्व और पर्यायत्व के द्वारा जानता है वह प्रात्मा को जानता है और उसका मोह क्षीण हो जाता है। स्वाध्याय से ध्यान का अभ्यास करे ओर स्वाध्याय से ध्यान का, क्योंकि ध्यान और स्वाध्याय से परमात्मा का प्रकाश होता है (तत्त्वा० ( १ ) | ध्यान का विशद विवेचन करते हुये ध्यान की महत्ता श्रीर उसका फल बतलाया है ध्यान को निर्जरा का हेतु और संवर का कारण बतलाया है। ध्यान की स्थिरता के लिये मन श्रीर इन्द्रियों का दमन आवश्यक है । इन्द्रिय की प्रवृत्ति में मन ही कारण है। मन की सामर्थ्य से इन्द्रियां अपना कार्य करती है, अतएव मन का जीतना जरूरी है। ज्ञान वैराग्य रूप रज्जू (रस्सी) से उन्मार्गगामी इन्द्रिय रूप अश्वों (घोड़ों) को वश में किया जाता है, क्योंकि इन्द्रियोंका प्रसंयम प्रापति का कारण है और उनका जीतना या वश में करना सम्पदा का मार्ग है। अतएव उनका नियमन जरूरी है। मन का व्यापार नष्ट होने पर इन्द्रियों की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। जिस सरह वृक्ष की जड़ के विनष्ट होने पर पत्ते भी नष्ट हो जाते हैं। मन को जीतने के लिये स्वाध्याय में प्रवृत्त होना चाहिए। और अनुत्प्रेक्षाओं ( भावनाओं) का चिन्तन करना चाहिए। इससे मन को स्थिर करने में सहायता मिलती है। इस तरह यह सपने विषय की महत्व पूर्ण कृति हैं, इसका मनन करने से आत्मज्ञान की वृद्धि होती है। स्वाध्याय प्रेमियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है । १. सदृष्टि ज्ञान वृत्तानिधर्म धर्मदेवरा विदुः । रत्नकरण्ड श्रावकाचार २. तद् ध्यानं निर्जरा-हेतुः संवरस्य च कारणम् तत्त्वानुशासन ५६ ३. इन्द्रायणां प्रवृत्ती च निवृत्तीच मनः प्रभुः मनएव जयेत्तस्मा जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः ॥ ७६॥ तत्त्वानु० ४. ज्ञान-बैराग्य-रज्जुभ्यां नित्यमुत्पथवर्तिनः जित चितेन शक्यन्ते धनुं मिन्द्रियवाजिनः ॥ तत्वा० ७७ ५. राट्ठे मणवावारे विमएसुन जंति इंदिया सवें । छिष्णे तरुस्स भूले तो पुणे पल्लवा हु'ति ।। ६६ आराधनामार
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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